Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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माँ की कोई नहीं प्रतिलिपि

 

भटक गया हूँ उन जानी पहचानी राहों में
जहाँ खेलता था माँ की ममता और उसकी की बांहों में
बचपन भी अब मुझे याद नहीं
याद है बस माँ
खुद सोती गीले में मुझे सुलाती सूखे में माँ
मैं तो मैं बन गया पर माँ अभी भी वो ही माँ
माँ के पल्लू में छिप जाता था डर हवा के झोंके से
वहां मिलती थी ताकत एक
जिसमें थी जीने की अभिलाषा अनेक
आँचल माँ का मेरी पहली पाठशाला
दुःख भी वहां था सुख से निराला
ममता माँ की एक झूला
मैं पचपन का लेकिन अभी तक नहीं भूला
माँ की गोद अभी तक उसका मुझे बोध
अब लाचार खुद बैठने में
मगर मेरा सिर रखकर गोद में अपनी
बालों मैं अंगुली फहराती
दुःख दर्द सरे भूल मैं बालक बन अबोध
खो जाता माँ के आँचल में
मन हो जाता मेरा निष्कपट निष्काम
पहुच जाता बच्चों के धाम
माँ तो माँ है माँ की कोई नहीं प्रतिलिपि
दुर्लभ अप्राप्य
भगवान की एक कृति

 

 

त्रिलोक चन्द्र जोशी 'विषधर'

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