Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं तो एक बंधनवार हूँ

 

मैं तो एक बंधनवार हूँ धागों में जकड़ा
सिमटा दरवाजे के माथे पर अकड़ा
बिना अपराध भुगत रहा सजा
सदियों से आज तक आगे अनंत
हर मंगल गान में मेरा मान
सूखे पत्तों में भी मेरा अभिमान
रक्षक हूँ में अपने अपराधी का
भक्षक बन बैठा मालिक ,मेरी लाचारी
हर आने वाला और जाने वाला देखता मुझको
कहता अब तो सूख गया फेंको इसको
कभी कोई अतिथि मुझे
गलती से छूता
मैं टूट अपनों से छूट
उसके चरणों गिर विनती करता
बंध बंध कर बुझ चूका हूँ
तुम आओ जगह मेरी मैं तुम्हारी
मै बंधनवार ये है मेरी लाचारी

 

 

त्रिलोक चन्द्र जोशी 'विषधर'

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