अशिक्षित माँ-बाप
नितिन और शौर्य की मुलाकात इंजीनियरिंग की काउंसिलिंग के दौरान हुयी थी. संयोग से दोनों ने कैमिकल इंजीनियरिंग ही ली. नितिन एक संपन्न पंजाबी परिवार से था और शौर्य उत्तर-प्रदेश के एक बड़े जमींदार का लड़का था. जब से कॉलेज में, शौर्य और नितिन की दोस्ती हुयी थी तभी से नितिन शौर्य को अपने घर ले जाने लिए कहता रहता था. शौर्य पंजाबी संस्कृति का दीवाना था और नितिन के घर जाने के लिए हमेशा तैयार रहता था. आखिर शौर्य के लिए नितिन के घर जाने का वो दिन आ ही गया था. बी.टेक. के प्रथम वर्ष की समर वेकेशनस के शुरू होते ही शौर्य, नितिन के साथ उसके घर के लिए रवाना हो गया. उन दोनों के साथ अरविन्द जाट भी था. अरविन्द जाट भिवानी का रहने वाला था और ठेट हरियाणवी बोलता था. वह उन दोनों को फर्स्ट डे की फर्स्ट क्लास में ही मिला गया था. तीनों की जोड़ी कॉलेज में मिसाल थी. एक साथ रहना, एक साथ खाना, एक साथ क्लास जाना, एक साथ खेलना, आदि आदि.
नितिन का घर उन दिनों यमुनानगर शहर में हुआ करता था. अक्सर उसके घर का पता बदलता रहता था क्योंकि उसके पापा रेलवे में थे और उनका तबादला होता रहता था. कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में, उसके परिवार को जाना पड़ता था. नितिन को अपने पिता का ये तबादला बहुत पसंद था. अक्सर वह शौर्य और अरविन्द को कहता रहता था कि उसके पापा के तबादले के कारण उसको अलग-अलग शहर में घुमने का मौका मिलता है. बात सही भी थी. शौर्य के पिताजी एक बड़े किसान थे और परिवार का ज्यादा कहीं आना-जाना नहीं होता था. यही वजह थी कि शौर्य ज्यादा शहरों में नहीं घुमा था और नितिन के घर यमुना नगर जाने के लिए एकदम तैयार रहता था.
हॉस्टल में लंच करने के बाद, वे तीनों अपना सामान उठा कर हाईवे की तरफ चल दिए. उनके कॉलेज से कहीं जाने के लिए बसें वहीँ से मिलती थीं. यह उनके हॉस्टल से करीब डेढ़ किलोमीटर दूरी पर था. पैदल ही वे चल दिए. तकरीबन पंद्रह मिनट में वे तीनों हाईवे के मुरथल मोड़ पर पहुँच गए. लगभग दस मिनट इंतज़ार करने के बाद, उनको दोपहर के करीब दो बजे मुरथल मोड़ से यमुनानगर की बस मिली. वह बस पलवल से आ रही थी. पलवल हरियाणा का एक जिला है. वैसे दस मिनट में वहाँ से यमुनानगर की कई बस गुजर चुकी थीं लेकिन उनको हरियाणा रोडवेज की बस ही पकड़नी थी. इसका कारण था, उस रूट पर चलने वाली अन्य बसों की तुलना में हरियाणा रोडवेज की बसों का आरामदायक होना. इन बसों की बाहरी लुक के साथ-साथ बैठने वाली सीटें काफी अरादायक होती थीं. शौर्य खिड़की की सीट पर बैठ गया. नितिन और अरविन्द उसके साथ. बस में बैठते ही नितिन ने मूंगफली का पैकेट खोल लिया. नितिन को सफर में खाने-पीने का ज्यादा शौक था. वैसे हॉस्टल में भी वह बहुत खाता था. इसका अंदाज़ा उसके शरीर को देख कर कोई भी लगा सकता था.
“ले जातू, मूंगफली खा.”, उसने मूंगफली का पैकेट अरविन्द के तरफ करते हुए कहा.
“दाने, हॉस्टल के बाहर तो कम से कम सही नाम से बोल.”, अरविन्द ने थोड़े गुस्से में पैकेट से मूंगफली उठाते हुए नितिन को कहा.
“सॉरी, यार”
जातू, अरविन्द का कॉलेज का निकनेम था और दाना, नितिन का. ये दोनों नामों का नामकरण अरविन्द नागराज ने किया था. वह उनके बैच में निकनेम रखने के लिए जाना जाता था. बैच के ४० छात्रों के निकनेम लगभग उसी ने रखे थे. दाना और जातू बहुत मजाक किया करते थे. एक दुसरे की खिचाई करने में एक से बढ़ कर एक थे. शौर्य उन दोनों की खिचड़-पिचड़ का बड़ा लुत्फ उठाया करता था. बस में भी उनकी यही खिचड़-पिचड़ चालू रही. और इसी खिचड़-पिचड़ में देखते ही देखते उनके सफ़र का आधा समय कट गया. ड्राईवर ने बस को एक ढाबे पर रोका. अक्सर लम्बे सफर की बसों को रास्ते में कुछ देर के लिए रोक दिया जाता है ताकि यात्री जल-पान कर सकें. जैसे ही बस रुकी यात्री बस से ऐसे निकल पड़े जैसे किसी मोर्चे पर जा रहे हों. यह भारतीयों की एक खास बात है कि बिना जरूरत के कार्यों में ये अत्याधिक तत्परता दिखाते हैं.
शौर्य भी जल्दी में था क्योंकि उसे नेचरस वर्क करना था. लेकिन फिर भी उसने सब्र रखा और आराम से उतरकर नेचरस वर्क के लिए गया. नितिन और अरविन्द भी तब तक थोड़े रिलैक्स हो गए थे. इसके बाद उन तीनों ने लस्सी का आर्डर दे दिया. बहुत जल्दी ही पंजाबी लस्सी के तीन बड़े गिलास उनके सामने तैयार थे. लस्सी बड़ी गाढ़ी और स्वादिष्ट थी. तीनों लस्सी की शीतलता का आनन्द ले रहे थे. कुछ वृद्ध चाय की चुस्की ले रहे थे. महिलाएं चाट-पकौड़ी का लुत्फ़ उठाने लग गयी थीं. बच्चे गिफ्ट शॉप में झुण्ड बनाये हुए थे. कुछ यात्री जो दिल्ली या उससे पीछे से आये थे वे खाना भी खा रहे थे. बस उस माहौल में, उनकी लस्सी गिलास की तलहटी में जा लगी. लस्सी इतनी स्वादिष्ट थी कि इसके खत्म हो जाने के बाद भी वो तीनों गिलास को हाथ की उंगलियों से चाटने लगे हुए थे. लस्सी के गिलासों का एक और सेट खरीद लेना चाहते थे लेकिन पचास का एक ही नोट था तीनों के पास. घर जाने से पहले अधिकतर इंजीनियरिंग के छात्र पैसे के मामले में आईसीयू में पड़े होते हैं. जैसे-तैसे मन को मार कर उन्होंने लस्सी का गिलास टेबल पर रखा और भुगतान करके वापस बस में आकर बैठ गए.
“पैसे एकदम खत्म. ऑटो के लिए भी नहीं बचे.” नितिन ने बस की खिड़की का शीशा खोलते हुए कहा.
“कोई नहीं यमुना नगर बस स्टैंड से पोस्ट-पेड ऑटो ले लेंगे.” अरविन्द बोला.
“सही कह रहा है. फटकार तो मुझे लगने वाली है न. मम्मी ने एग्जाम शुरू होने से पहले ही ४ हजार डाले थे अकाउंट में. सारे पैसे लड़के घर जाने से पहले ले गए. मेरे पास जो बचे थे उनमें से बस के टिकेट और लस्सी के पचास रूपये के आलावा सारे पैसे कल ददू के इलाज़ के लिए दे दिए थे. और तुम भी तो बड़े दानवीर हो तुमने भी एक रुपया नहीं अपने पास रखा सारे के सारे उस शराबी के इलाज के लिए दे दिए. अब ऑटो के पैसे भी अगर मम्मी से मांगूंगा तो क्या होगा. पता नहीं.” नितिन ने दोनों को फटकार लगाते हुए कहा.
“बोल देना सारे पैसे दद्दू के इलाज़ के लिए दे दिए.” शौर्य ने सुझाव दिया.
दद्दू उनके साथ पढ़ने वाला उनका सहपाठी था. उसका एग्जाम से पहले एक्सीडेंट हो गया था. बियर पी कर संदीप की बाइक कॉलेज की दीवार में दे मरी थी.
“मम्मी अगर पूछेगी कि दद्दू को क्या हुआ है तब क्या बोलू.”नितिन ने शौर्य से पूछा.
“कह देना दद्दू को वायरल फीवर हो गया था. लड़का ज्यादा सीरियस था और उसके माँ-बाप आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं है. इसलिए चंदा देना पद गया.” शौर्य ने कहा.
“चलो ठीक है. देखते हैं, क्या होता है.” नितिन ने हामी भरी.
“अबे देखो. वो जो सामने वाली सीट पर बैठे थे ना लड़के, कैसे सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ा रहे हैं. स्कूल में पढ़ते होंगे लेकिन अभी से सिगरेट पीनी शुरू कर दी है.” नितिन बोला.
सिगरेट के धुएं के छल्ले का ये नजारा दिख रहा था ढाबे के पास की पान-मसाले की दुकान पर. उन युवाओं के अतिरिक्त कुछ वृद्ध व्यक्ति भी धुम्रपान कर रहे थे.
“नितिन, हमारे देश में ढाबे, आदि के नजदीक मेडिसिन, आदि की दुकान हो या न हो परन्तु पान-मसाले और शराब की दुकानें जरूर मिलेंगी. इनकी बिक्री भारतीय जी.डी.पी. जो बढ़ाती है. इस तरह की जी.डी.पी. बढ़ोत्तरी को राजनेता भारत निर्माण का नाम देते हैं. माँ-बाप भी चाहते हैं कि उनके पुत्र-पुत्री बीड़ी-सिगरेट, पान-मसाले, शराब, आदि से दूर रहें लेकिन खुद इन व्यसनों का लुत्फ उठाते रहें. ये भला कैसे मुमकिन है की तुम चोरी करो और दूसरों को चोरी करने से रोको. पहले हमें ही चोरी छोडनी पड़ेगी तभी तो हम दूसरों को मना कर सकते हैं. जब तक ये धारणा हमारे वृद्ध नहीं बदलेंगे तब तक देश को व्यसन मुक्त बनाना नामुमकिन है.” शौर्य ने कहा.
उन युवाओं में से कुछ तो बस में ही शुरू हो गए थे. दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि वो आधुनिक और शिक्षित युवा हैं. लेकिन उन तीनों दोस्तों ने उनको बस में धुम्रपान करने से मना कर दिया था. परन्तु ढाबे पर बस के रुक जाने के कारण इन धुम्र-प्रेमियों को ३० मिनट का समय मिल गया और इसका पूरा फायदा उठाते वे दिख रहे थे. इसी सब में, बस के विराम के ३० मिनट पूरे हो गए और अपने सेट समय पर कंडक्टर ने सिटी बजाई और जो यात्री बस के बाहर थे वे जल्दी से बस में सवार हो गए. ड्राईवर ने बस स्टार्ट की और धीरे-धीरे बस को आगे चलाने लगा. लेकिन वे युवा अभी भी धुम्रपान में मुग्ध थे. जब कंडक्टर ने अंतिम विस्सल बजाई तब कही वो बस की तरफ बढ़े और आपम-धापम में चलती बस में चढ़े.
ड्राईवर ने बस का एक्सेलरेटर बढ़ा दिया और बस यमुनानगर की तरफ दौड़ने लगी. खाना खाने के बाद, ड्राईवर और कंडक्टर काफी खुश थे. ड्राईवर और कंडक्टर की खुशी का अंदाजा बस के रंगीन माहौल से लगाया जा सकता था. बस में हरियाणवी देशी गानों की बहार चलने लगी थी. ‘हट जा ताऊ पाछे ने’, ‘पानी आली पानी पिया दे’, आदि गाने एक के बाद एक चल रहे थे. गानों को सुनते हुए यात्रियों का समय भी अच्छे से कट रहा था.
उन तीनों के साथ वाली सीट पर एक लड़का बैठा था. वह उनके बस में चढ़ने के पहले से ही बस में बैठा था. अरविन्द जातू ने बस में बैठते ही उससे दोस्ती कर ली थी. कुछ समय बाद, शौर्य और नितिन भी उससे गपशप मारने लगे थे. उसका नाम घनश्याम था. वह पलवल से आ रहा था. जे.बी.टी. टीचर के लिए यमुना नगर में इंटरव्यू देने जा रहा था. उसके साथ दो और यात्री बैठे थे. उसके बारे में, बस इतना उनको मालूम था. लेकिन जब बस ढाबे पर रुकी तो उसको एक वृद्ध महिला और एक वृद्ध पुरुष ने आवाज दी “बेटे घनश्याम कुछ खाओगे?”. उसने उनकी आवाज को इग्नोर कर दिया था और आराम से बर्गर लेकर खाने लगा. वृद्ध महिला और पुरुष चाय पीने लगे. इसके बाद घनश्याम और वो वृद्ध महिला और पुरुष वापस बस में बैठ गए. घनश्याम पहले वाली सीट जो उन तीनों की सीट के बगल में थी पर आकर बैठ गया. वृद्ध महिला और पुरुष भी अपनी पहले वाली सीट जो अंतिम सीट थी पर बैठ गए. देशी हरियाणवी गानों के मद-मोहक वातावरण में फिर से घनश्याम के साथ उनकी गपशप चालू हो गयी.
“अरे घनश्याम, जब बस ढाबे पर रुकी थी तब वो वृद्ध महिला और पुरुष तुम्हे बेटा बुला रहे थे. वो तुम्हारे क्या लगते हैं? कहीं वो तुम्हारे माँ-बाप तो नहीं हैं?”, अरविन्द जातू ने घनश्याम से पूछा.
उसने टालमटोल करने की कोशिश की. लेकिन अरविन्द ने फिर से वही सवाल पूछा. तब जाकर उसने उन वृद्धों के परिचय के लिए अपना मुहँ खोला.
“भैय्या, हाँ वो मेरे माँ-बाप हैं.”, घनश्याम ने बताया.
“लेकिन तुम उनके साथ अजनबियों वाला व्यवहार क्यों कर रहे थे?” नितिन ने सवाल किया.
“भैया, मैंने उनको मना किया था साथ आने के लिए लेकिन वो जबरदस्ती चले आये.”, घनश्याम ने जवाब दिया.
“ये तो बहुत अच्छा है. तुम्हारे माता-पिता तुम्हे कितना प्यार करते हैं. इतनी दूर तुम्हारे साथ आये हैं.”, नितिन ने घनश्याम से कहा.
“भैय्या वो तो ठीक है लेकिन वो शिक्षित नहीं हैं. मैंने उनको समझाया था कि तुम साथ मत चलो. इससे मेरी वहाँ इन्सल्ट होगी क्योंकि वहाँ पर अधिकांश शिक्षित माँ-बाप आयेंगे. लेकिन ये नहीं माने और कहने लगे घनश्याम तुझे अकेले नहीं जाने देंगे और साथ आ गए. मुझे बाहर इनके साथ आना-जाना अच्छा नहीं लगता है. इसलिए इनको अलग बैठा रखा है.”
ये शब्द सुन कर शौर्य को गहरा झटका लगा. बस में जो रंगीन माहौल था कम से कम शौर्य के लिए तो वो किसी मातम से कम नहीं था. “कैसे कोई अपने माँ-बाप को अशिक्षित समझ सकता है और उनको साथ रख कर बेईज्जत महसूस कर सकता है.” शौर्य ने दिल में मह्शूश किया. लेकिन इसका जीता जागता उदाहरण शौर्य के सामने था.
“अरे घनश्याम, इनके अशिक्षित होने से तेरा अपमान कैसे हो सकता है?”, नितिन ने उससे पूछा.
“भैय्या, जब मैं पलवल से जे.बी.टी. कर रहा था तो उस समय मेरे सारे बैचमेटस के माँ-बाप पढ़े लिखे थे. जब भी कॉलेज में कोई कार्यक्रम होता था तो वो सब सिरकत करते थे. सभी अंग्रेजी या शहरी भाषा में बोलते थे. मेरे माँ-बाप भी एक दो बार वहाँ आये लेकिन वे सिर्फ देहाती भाषा में बोलते थे क्योंकि उनको अंग्रेजी और शहरी भाषा नहीं आती है. इस बात पर मुझे वहाँ शर्मिंदा होना पड़ता था.”, घनश्याम ने सफाई दी.
“तुम्हे तो गर्व करना चाहिए की वो अशिक्षित होने के बावजूद तुम्हे पढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.” अरविन्द ने उसको धिक्कारा.
“भैया उनके अशिक्षित होने के कारण मुझे कई बार कष्ट उठाने पड़े हैं. मैंने दसवी की पढ़ाई गाँव के सरकारी स्कूल से की थी. मेरी दसवी कक्षा में मेरिट आई थी. आगे पढ़ने की इच्छा थी. परन्तु गाँव का स्कूल केवल दसवी तक था. इसलिए गाँव से बाहर ही किसी स्कूल में पढ़ाई करने का एक मात्र रास्ता बचा था. मैंने पलवल के एक पब्लिक स्कूल में दाखिला लेने का सोचा था क्योंकि उन्होंने उन छात्रों जिन की दसवी कक्षा में मेरिट आई थी के लिए दाखिला फ्री कर रखा था. इसके साथ-साथ उस स्कूल में मेधावी छात्रों के लिए आई. आई. टी. की प्रवेश परीक्षा की कोचिंग फ्री थी. लेकिन इनके अशिक्षित होने की वजह से उस स्कूल में मेरा दाखिला नहीं हो सका. स्कूल के रूल्स के अनुसार बच्चे का दाखिला कराने के लिए माँ-बाप का शिक्षित होना जरूरी था. अन्य स्कूलस में पढ़ाई का खर्चा बहुत ज्यादा था जो ये देने में असमर्थ थे. जब किसी अच्छे स्कूल में मेरा दाखिला नहीं हुआ तो अंत में मुझे पास के गाँव के सरकारी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा. आपको तो पता ही होगा कि हमारे देश के सरकारी स्कूलस का क्या हाल है. स्कूल तो वो सीनियर सेकेंडरी था. साइंस साइड भी थी वहाँ. लैबस भी बनी थीं. लैबस के अन्दर कुछ नहीं था और अध्यापक नहीं आते थे वो अलग बात थी. इसके अतिरिक्त, पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी था. दसवी तक मैंने हिंदी माध्यम में पढ़ाई की थी. अब अचानक से अंग्रेजी में पढ़ना किसी पहाड़ को तोड़ने से कम नहीं था. ऐसे माहौल में किसी इंजीनियरिंग एंट्रेंस एग्जाम में सफलता पाना तो दूर की बात पास होने के भी लाले होते हैं.
आप को तो भली भांति पता होगा की देश के इन सरकारी स्कूलस में पढ़ कर शहर के बच्चों जो लाखों रूपये खर्च करके इंजीनियरिंग के एंट्रेंस की कोचिंग लेते हैं के साथ मुकाबला करना एक कपोल कल्पना ही है. मैंने उस पास वाले गाँव के सरकारी स्कूल से सीनियर सेकेंडरी तो पास कर ली लेकिन किसी इंजीनियरिंग के एंट्रेंस को क्वालीफाई नहीं कर पाया.
प्राइवेट कॉलेजिस में एडमिशन मिल रहा था लेकिन फिर इनकी आर्थिक असमर्थता आड़े आ गई. अंत में हारकर मैंने जे.बी.टी. में ही एडमिशन लेना मुलाजिब समझा. जे.बी.टी. पास कर ली. कुछ महीने पहले हरियाणा सरकार ने जे.बी.टी. अध्यापकों की भर्ती के लिए विज्ञापन दिया था. उस समय मैंने फॉर्म भर दिया था. अब साक्षात्कार की डेट आई है. काश ये पढ़े लिखे होते तो मेरा दाखिला उस पब्लिक स्कूल में हो जाता और अच्छी कोचिंग के कारण किसी सरकारी कॉलेज में, मैं भी आपकी तरह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा होता. अब आप ही बताओ अगर आप मेरी जगह होते तो क्या आप इनको जिम्मेदार नहीं मानते.” उसने अपनी व्यथा उन तीन दोस्तों को सुनाई.
“घनश्याम तुम्हारी बातें कुछ हद तक तो ठीक हैं. लेकिन इन सब के लिए अशिक्षित माँ-बाप को दोष देना ठीक नहीं है.” अरविन्द जातू ने उसे समझाया.
“वो बेचारे तो गरीब और आधुनिक शिक्षा प्रणाली के अनुसार अशिक्षित होने के वावजूद तुम्हे पढ़ाने के लिए कितना कष्ट उठा रहे हैं.” शौर्य ने घनश्याम को बताया.
“इसमें उनका दोष नहीं है. दोष है इस देश की शिक्षा प्रणाली और कानून का. आज जब देश आजाद है फिर भी सरकार हर बच्चे को अंग्रेजी में पढ़ा कर अंग्रेज बनाना चाहती है. पता नहीं क्यों? इसका प्रभाव तुम्हारे जैसे लाखों छात्रों पर पड़ता है.
इस अंग्रेजी के हऊए के कारण लाखों छात्रों की प्रतिभाएं गाँव की गलियों में दम तोड़ जाती हैं. इसमें दोष है यहाँ के राजनेताओं का जिन्होंने अपने देश की भौगोलिक परिस्थितियों को समझे बिना ही विदेशी शिक्षा प्रणाली को अंधे कानून की तरह लागू कर दिया और अब यह तंत्र देश गाँव के लाखों बच्चों का मानसिक उत्पीड़न कर रहा है.” नितिन ने घनश्याम को बताया.
“ये तो हम जैसे देश भक्त युवाओं को ही आगे आकर बदलना पड़ेगा. इस देशद्रोही तंत्र के लिए भगवान जैसे माता-पिता को दोष देना अच्छी बात नहीं है. हमें अपने स्वाभिमान को बुलंद करना होगा.” अरविन्द ने घनश्याम से कहा.
“कौन कहता है कि तुम्हारे या तुम्हारे जैसे गाँव के लोगों के माँ-बाप अशिक्षित हैं. मैं सिद्ध कर सकता हूँ कि वो बड़े विद्वान हैं.” शौर्य ने कहा.
“वो कैसे?” घनश्याम ने शौर्य से पूछा.
“ ये सब मानते हैं कि वो ही इंसान सभ्य और शिक्षित होता है जिसको जीवन क्या है, इसे कैसे जिया जाता है, मालूम होता है. और इसको हम भारतीयों से अच्छा कौन जानता है. इसको जानने के लिए एक साल, दो साल या चार साल का समय नहीं बल्कि हजारों साल हमारे पूर्वजों ने खर्च किये हैं. यही कारण है कि हजारों साल के प्रयोग और अध्ययन इस देश के हर बच्चे को पैदा होते ही विरासत में मिलते हैं और इन में बढ़ोत्तरी दिन-प्रतिदिन घर रुपी विद्या मंदिर में होती है. अगर शिक्षित होने का पैमाना आज की क्लास शिक्षा है तो हर भारतीय बच्चा बड़ा होते-होते डॉक्टरेट की उपाधि हांसिल कर लेता है. फिर कैसे हमारे माँ-बाप अशिक्षित हुए. एक बात हम सब को समझनी चाहिए कि इस देश के लोभी नेताओं ने देश की जनता का स्वाभिमान तोड़ दिया है. यही कारण है की इस देश की जनता बहुत काबिल होने के बावजूद अपने आप को उन विदेशियों, जो कल तक जंगली जानवर थे, की तुलना में हीन, तुच्छ, नासमझ समझती है. ये अपनी विश्वस्तरिय योग्यता को स्कूल या कॉलेज न जाने के कारण बेकार समझते हैं. और हमारे जैसे बच्चे अंग्रेजी स्कूल में जा कर समझते हैं की इनको शहरी और अंग्रेजी भाषा नहीं आती है तो ये बेवकूफ हैं. किसी एक भाषा विशेष की जानकारी पढ़ाई का पैमाना नहीं होता है और न ही शिक्षित और सभ्य होने का. न ही किसी भाषा विशेष को पढ़-लिखने वाला विद्वान होता है. केवल किताब पढ़ कर ही इंसान विद्वान नहीं बन सकता है. बिना किताब पढ़ कर भी इंसान गुणवान और विद्वान बन सकता है.” शौर्य ने घनश्याम से कहा.
“ये सब कैसे?”
“मैं तुम्हे समझाता हूँ.” शौर्य ने घनश्याम को कहा.
“तुम एक बात बताओ.”
“पूछो, भैया.”
“तुम्हारी माँ खाना कैसा बनाती है?”
“बहुत अच्छा बनाती है. वह तो स्वादिष्ट और स्वस्थ्यवर्धक खाना बनाने के लिए हमारे गाँव के साथ-साथ आसपास के कई गाँव में मशूहर भी है. उसके अचार, मुरब्बे, शरबत, पापड़ तो कई शहरी लोग भी लेकर जाते हैं.” घनश्याम ने बताया.
“तुमने सही कहा. लेकिन तुम्हारी माँ के अलावा इस देश की लगभग हर महिला को इनमें महारत हांसिल होता है. मैं पूछता हूँ कि जब वो इतना अच्छा खाना बनती है और आसपास के इलाके में मशूहर भी है फिर भी तुम उसको अशिक्षित क्यों मानते हो.”
“खाना बनाने वाला थोड़े ही पढ़ा लिखा होता है.”
“क्यों नहीं हो सकता है. तुमको बताया गया है की जो क्लास में जाकर पढ़ाई करता है बस वो ही पढ़ा लिखा या शिक्षित होता है इसलिए तुम ऐसा सोचते हो.”
“हाँ”
“होटल मैनेजमेंट में आजकल अंडर ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन, आदि के कोर्स कराये जाते हैं. जो लोग उनको करते हैं उनको तुम पढ़ा लिखा मानते हो?” शौर्य ने पूछा.
“बिल्कुल.”
“होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाले कौन सा नया काम करते हैं. वे भी तो खाना बनाना, बर्तन साफ करना, टेबल को डेकोरेट करना, खाना परोसना, आदि काम करते हैं. तुम्हारी माँ, मेरी माँ को बचपन से ये सब काम इतने अच्छे से आते हैं कि होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाला कभी भी उनका मुकाबला नहीं कर सकता. काम दोनों एक जैसा करते हैं और एक शिक्षित है जबकि दूसरा अशिक्षित. ये तो माँ के साथ अन्यया हुआ ना.” शौर्य ने घनश्याम को समझाया.
“एक और बात पूछता हूँ” शौर्य ने सवाल किया.
“पूछो, भैया.” घनश्याम ने उत्तर दिया.
“डायटीशियन के कोर्स के बारे में तुमको जानकारी है ना.”
“हाँ.”
“इसमें आजकल डिप्लोमा से लेकर डिग्री तक कराई जाती है. कई विश्वविद्यालय तो इसमें डॉक्टरेट की पढ़ाई भी कराते हैं. इसका कोर्स करने वालों को तो घनश्याम तुम पढ़ा लिखा मानते हो.” नितिन ने घनश्याम से पूछा.
“बिल्कुल मानता हूँ, भैया.”
“अच्छा ठीक है. तुमको पता है ना कि इनका काम डाइट को डिजाईन करना होता है.”
“पता है.” घनश्याम ने उत्तर दिया.
“तुम्हारी माँ, मेरी माँ को बचपन से सीखाया जाता है कि सर्दी में क्या खाना है, गर्मी में क्या खाना है, बसंत में क्या खाना है, गर्भवती को क्या खिलाना है, बच्चों को क्या खिलाना है, वृद्ध को किया खिलाना है, पहलवान को किया खिलाना है, आदि आदि. ये डायटीशियन दो, चार, छ: साल पढ़ कर, कागज का एक दुकड़ा लेकर तो शिक्षित हो जाते हैं और जो बचपन से सीखती है वो अशिक्षित हो जाती है क्योंकि उसको अंग्रेजी में बात करना नहीं आता है.” शौर्य ने घनश्याम को समझाया.
“ये तो रही हमारे देश की माताओं के शिक्षित होने की बात. अब बात करते हैं देश के पिताओं की. तुम एक बात बताओ जो लोग कृषि विज्ञान में पढ़ाई करते हैं वो शिक्षित है या अशिक्षित.” नितिन ने घनश्याम से पूछा.
“बेशक, शिक्षित होते हैं.”
“तुम्हारे पिता को मेरे पिता को बचपन से उनके पिताओं ने और उनके पिताओं को उनके पिताओं ने कृषि करना सीखाया. ये लोग कृषि की जड़ तक जानकारी रखते हैं. जो लोग कृषि विज्ञान की पढ़ाई करते हैं उनको कुछ शब्द अंग्रेजी के सिखा दिए जाते हैं और वो लोग प्रयोगशालाओं में बैठ कर कुछ-कुछ करते हैं. जबकि हमारे देश का हर कृषक प्रयोगात्मक कृषि करता है. दुनिया आज ऑर्गेनिक खेती की बात कर रही है. लेकिन हमनें हजारों साल पहले इसका लोहा सारी दुनिया को मनवा दिया था. यह सब कृषि पद्दितियों में सर्वश्रेष्ठ है. इसको करने वाले को तुम अशिक्षित, गंवार, देशी, आदि नामों से पुकारते हो क्योंकि उनको अंग्रेजी नहीं आती है और जो सिर्फ चार साल कॉलेज में बिताता है उसको शिक्षित.” नितिन ने घनश्याम को बताया.
“ये तो कुछ उदहारण हैं. इनकी सूची लम्बी है मेरे दोस्त.” अरविन्द ने अपना मौन तोड़ते हुए कहा.
“मैंने कभी इस तरह से नहीं सोचा, भैया.”
“दोस्त इस तरह से कोई सोचता है ना तो लोग उसको भी बेवकूफ कहते हैं. देश के लोगों का आत्म स्वाभिमान इस हद तक गिर गया है. और गिरता जा रहा है क्योंकि युवा तो अब इनसे भी आगे बढ़ गए हैं. उनके अनुसार तो अगर तुम फेसबुक, ऑरकुट, आदि पर नहीं हो तो बहुत बैकवर्ड माने जाते हो.” शौर्य ने घनश्याम को कहा.
“भैया, पूरी तरह से आपकी बात, मेरी समझ में आ गयी है. मेरा स्वाभिमान बुलंद हो गया है और अब इसको बुलंद ही रखना है. जीवन में, कुछ ऐसा करूंगा कि इस भ्रष्ट तंत्र और भ्रष्ट नेताओं को हटा जा सके ताकि फिर से भारत का प्राचीन गौरव स्थापित हो जाये. ” घनश्याम ने शौर्य को कहा.
ये वार्तालाप इतना आनंदायक और ज्ञानदायक था की आसपास के लोग भी बड़ी रूचि के साथ उनकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे. अधिकांश लोग स्वाभिमान से भर गए थे. माँ-बाप की अशिक्षिता का जो भ्रम वो पाले हुए थे अधिकांश का भ्रम अब दूर हो चूका था. ये वार्तालाप इतना लम्बा चला की इसी के दौरान यात्रा का बाकी का आधा समय भी कट गया और बस यमुना नगर बस स्टैंड पर जा खड़ी हुयी. यात्री फिर से ऐसे उतरने लगे जैसे किसी लड़ाई में जा रहे हों. बस खाली हो गयी. वो तीनों दोस्त, घनश्याम और उसके माँ-बाप अंत में बस से उतरे. घनश्याम उन तीनों के सामने अपने माँ-बाप के पेरों में पड़ कर माफी मागने लगा. उन सज्जन वृद्ध महिला और पुरुष ने तुरंत अपने बेटे को गले से लगा लिया. शौर्य, नितिन और अरविन्द का तो वो ऐसे गुण-गान करने लगे जैसे कोई किसी भगवान का करता हो. करना लाजमी भी था क्योंकि उनकी वजह से ही उनके बेटे की सोच बदली थी. तीनों दोस्तों ने घनश्याम और उसके माँ-बाप को प्रणाम किया और ऑटो पकड़ कर नितिन के घर के लिए रवाना हो गए.
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
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