Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुंडलियाँ

 

बोता खुद ही आदमी,सुख या दुख के बीज.
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज.
लटकाता ताबीज,बहुत कुछ अपने कर में.
स्वर्ग,नर्क निर्माण,स्वयं कर लेता घर में.
'ठकुरेला' कविराय,न सब कुछ यूँ ही होता.
बोता स्वयं बबूल,आम भी खुद ही बोता.



माटी अपने देश की,पुलकित करती गात.
मन में खिलते सहज ही,खुशियों के जलजात.
खुशियों के जलजात,सदा ही लगती प्यारी.
हों निहार कर धन्य,करें सब कुछ बलिहारी.
'ठकुरेला' कविराय,चली आई परिपाटी.
लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ,देश की सौंधी माटी.



काँटे को कहता रहे, यह जग ऊल-जुलूल.
पर उसकी उपयोगिता, खूब समझते फूल.
खूब समझते फूल,बाढ़ हो काँटे वाली.
खिलें तभी उद्यान ,फूल की हो रखवाली.
'ठकुरेला' कविराय, यहाँ कुदरत जो बांटे.
उपयोगी हर चीज, फूल हों या फिर काँटे.



पाया उसने ही सदा,जिसने किया प्रयास.
कभी हिरन जाता नहीं, सोते सिंह के पास.
सोते सिंह के पास,राह तकते युग बीते.
बैठे -ठाले लोग , रहे हरदम ही रीते.
'ठकुरेला' कविराय ,समय ने यह समझाया.
जिसने किया प्रयास ,मधुर फल उसने पाया


.
- त्रिलोक सिंह ठकुरेला

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ