Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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लम्हे इंतज़ार के

 

intezar

 

 

 

ऐ मेरे चंदा - शुभ-रात्री, आज रात मेरे लिए कोई प्रेम भरा गीत गाओ। काली सियाह रात का पर्दा गिर चुका है और तुम्हारी शीतल सफ़ेद चांदनी कोमल रुई की तरह चारों तरफ बरसने लगी है। क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ ? दिल की खिड़की खुली है और बाहर दरवाज़े बंद हो गए हैं। दुनिया मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रही है और मैं हूँ जो रत्ती भर भी हिल नहीं रहा है। मैं अपनी सोच और विचारों के साथ स्थिर हूँ। मैं उस शिखर पर हूँ जहाँ से देखने पर सब कुछ बदल जाता है। मेरी हर सांस के साथ मेरे अरमानो पर पिघलती बर्फ़ के बहते हुए हिमस्खलन जैसा डर लगने लगता है। तुम कितनी दूर हो मुझसे। मैं तुम्हे वास्तविकता में महसूस तो नहीं कर सकता, पर सितारों की रौशनी को देख सकता हूँ। नींद मेरे से कोसों दूर उन बंद अलमारियों के पीछे जाकर छिप गई है। मैं तुम्हे इस चाँद की सूरत में देख रहा हूँ, इसकी बरसती शफ्फाक़ चांदनी में तुम्हे अपनी बाहों के आग़ोश में महसूस कर सकता हूँ, हीरों से चमकते सितारों की जगमगाहट में तुम्हारी मुस्कान की झलक पा रहा हूँ। मैं तो तुम्हारे इश्क़ की मूर्ती हूँ और मेरा दिल इसकी मिटटी को धीरे-धीरे तोड़कर मेरी हथेलियों में भर रहा है। मैं निडर हूँ, फिर भी एक अनजाना डर मुझे तराशता जा रहा है।

 

मैं अधर में हूँ और जागते हुए भी सोया महसूस कर रहा हूँ, मेरे पैर ठंडे फ़र्श को छू रहे हैं और मैं इस अनिद्रा वाली नींद में चलते हुए अपने घर का खाखा ख़ोज रहा हूँ। मैं ग्रेनाइट से बनी मेज़ छू रहा हूँ और चमड़े से बने सोफ़े पर अपनी उँगलियों में पसीजते पसीने के निशाँ बनाकर छोड़ता रहा रहा हूँ। मैं दरवाज़े तक पहुंच उसे सरका कर बाहर लॉन में ओस से गीली नर्म घास पर खड़ा अपनी आत्मा को तुमसे जोड़ने का प्रयास कर रहा हूँ। तुम यहाँ भी नहीं हो पर तुम यहाँ के कण-कण में व्याप्त हो। समस्त प्रांगण तुम्हारे प्रेम से दमक रहा है। मैं दिक्सूचक बन गया हूँ पर अपनी उत्तर दिशा नहीं ढूँढ पा रहा हूँ। मेरा तीर लगातार घूम रहा है और मुझे नींद के झोंके आने लगे हैं। मैं आसमां की तरफ देखता हूँ तो मेरी आँखें धुंधली हुई जाती हैं, मैं लालायित हूँ, मैं तरस रहा हूँ, मैं अपनी पसलियों को अपनी हथेलियों से थामे खड़ा हूँ और अपने दिल की धडकनों को सीने से बहार निकल पड़ने के लिए संघर्ष करते, दबाव बनाते महसूस कर रहा हूँ। मैं निडर हूँ, फिर भी मेरी हर सांस के साथ एक अनकहा डर सांस ले रहा है।

 

दुनिया मौन है। मैं पुराने बरगद पर, जिससे तुम्हे बेहद लगाव है, पर पड़े झूले पर औंधा लेट गया हूँ। तुम्हारे होने के एहसास को अपना तकिया बना तुम्हारे सीने पर सर रखकर मैं आराम से लेटा हूँ। पर यह एहसास मेरी मौजूदगी को नकार रहा है। मेरे सपने मेरी हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ कर रहे है। पर मैंने हार नहीं मानी है मैं कोशिश कर रहा हूँ। मैं तुम्हारे अक्स को इन बाहों में भरता हूँ पर मुझे तुम्हारी अनुपस्थिति के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। मेरा ह्रदय में आज भी तुम्हारे साथ की स्मृतियाँ ताज़ा हैं। मैं तुम्हारी परछाई को इन बेजुबां चीज़ों में छूने की कोशशि कर रहा हूँ और अपने हाथों के स्पर्श से उन अलसाई स्मृतियों को मिटाता जा रहा हूँ। मैं आगे बढ़ एक दफ़ा फिर तुम्हे खोजने की कोशिश कर रहा हूँ। तुम मुझे चिढ़ाती हो और मेरी आँखें नम हो जाती हैं। तुम ख़ुशी से खिलखिलाकर, प्रफुल्लित हो उठती हो और मैं तुम्हारे प्रेम के गुरुत्वाकर्षण में बंधा चला जाता हूँ। मैं अपने हाथ ऊपर उठा खड़ा हूँ और ऐसा महसूस कर रहा हूँ जैसे इश्क़ की हवा में तैर रहा हूँ और अरमानो के आसमां में तुम्हारी मदहोशी के बादलों में गोते लगता आगे बढ़ रहा हूँ और जल्द ही तुम्हारे करीब, बहुत करीब पहुँच जाऊंगा। मैं इन बादलों से ऊपर, इन वादियों से परे, चाँद सितारों के बीच कहीं किसी ख़ूबसूरत गुलिस्तां में तुम्हारे साथ बैठ बातें करूँगा। यही सोच मैं ख़ुशी से झूम जाता हूँ। मैं अपने वादे से बेहद प्रफुल्लित हूँ। तुम गर्म सांसें छोड़ रही हो, गहरी सांसें भर निःश्वास हो रही हो और तुम्हारा आकर्षण फिर से मुझे तुमसे जोड़ रहा है। आशा, उम्मीद, विश्वास मेरी नसों में खून बनकर दौड़ रहा है और मेरी देह की मिटटी को सींच रहा है। मैं एक दफ़ा फिर से इंतज़ार में बैठा हूँ तकियों को अपने आस-पास जमा किये हुए। अकेला बिलकुल अकेला, ख़ामोशी को पढ़ता और तुम्हारे प्रतिबिम्ब से बातें करता। में अकेला हूँ सचमुच अकेला।

 

ऐ मेरे चंद्रमा - शुभरात्रि।
आज रात मेरे लिए कोई अनोखा गीत गाओ।
सुबह के उजाले तक मुझे अकेला इंतज़ार के लम्हों में तड़पता मत छोड़ देना।

 

 

तुषार राज रस्तोगी

 

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