Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दोस्ती, प्यार और ज़िन्दगी का चौराहा !

 

करीब ८ महीने पहले………………….!


डॉक्टर वर्मा ने मुझे अपने करीब बिठाया और कहा,“देखो देव,तुम एक संवेदनशील कवि और लेखक हो,मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा। तुम लंग कैंसर की एडवांस स्टेज पर हो। तुम्हारी सिगरेट पीने की आदत ने तुम्हे ख़तम कर दिया है। अब ज्यादा से ज्यादा ६ या ८ महीने बस !”

मैंने उसे गले से लगा लिया,“यार वर्मा,तुमने तो मेरी ज़िन्दगी की सबसे अच्छी खबर मुझे सुनाई है,पता नहीं कितने बरसो की मेरी ये तमन्ना थी कि मैं मर जाऊं। शुक्रिया तुम्हारा और सिगरेट का!”

डॉक्टर वर्मा की आँखे भीग गयी,“अब मैं तुम्हारी कविताये नहीं पढ़ पाऊंगा, इस बात का मुझे ज्यादा, बहुत ज्यादा दुःख है।”

मैंने उसे फिर से गले लगा लिया, “यार अब कुछ अगले जनम के लिए तो रखो!”


करीब ४ महीने पहले………………………!


मैंने इन्टरनेट में सर्च किया और उसका पता ढूँढा और उसे फ़ोन किया। मैंने कहा, “मैं देव बोल रहा हूँ निम्मो,एक बार मिलना है,शायद आखरी बार। जल्दी से मिलने आ जाओ।”

बहुत देर की ख़ामोशी के बाद उसकी हिचकियो से भरी हुई भीगी हुई आवाज़ आयी, “अब? इतने बरस बाद? क्या तुमने मुझे माफ़ कर दिया देव? क्या तुम्हारे मन में मेरे लिए अब कोई नफरत नहीं रही?”

मैंने कहा, “माफ़ी? प्रेम में माफ़ी? हाँ, क्रोध रह सकता है पर कोई उससे कैसे नफरत करे जिसे टूट-टूट कर चाहा हो। जीवन के इस मोड़ पर मैं माफ़ी जैसे शब्द से ऊपर, बहुत ऊपर उठ चूका हूँ। बस जीवन के आखरी कुछ दिन बचे हुए है। तुम्हे देखना चाहता हूँ एक बार!हाँ ; बेटी को लेते आना। और अमित को भी। उसे कुछ देना है”

दूसरी ओर बहुत देर तक रोने की आवाज़ आती रही!यहाँ भी सात समंदर पार आकाश भीगा सा रहा,असमय मेघो ने बारिश की। मेरे आँखों के साथ मेरा मन भी भीग गया।


आज सुबह………………………!


घर के दरवाजे पर दस्तक भी हुई और घंटी भी बजी,मैं पूजा कर रहा था।

मैंने प्रभु को प्रणाम करते हुए दरवाजे की तरफ देखते हुए कहा,“आ रहा हूँ भाई,ज़रा रुक जाओ”

मैंने अपना चश्मा पहना और फिर धीरे धीरे चलते हुए दरवाजे की ओर बढ़ा और फिर दरवाजा खोला। पुराना दरवाजा था,कुछ आवाज़ करते हुए खुला।


सामने जो शख्स खड़ा था, उसे देखकर मैं चौंका। मैं समझा, मेरी नजरो का धोखा होंगा, मैंने अपने चश्मे को साफ़ किया और उस शख्स को गौर से देखा। वो मुस्कराता हुआ खड़ा था और मैंने उसे पहचान लिया।

वो अमित था!

मुझे आभास हुआ कि मैंने जो फ़ोन किया था, शायद वो बात मान ली गयी है।

उसने कहा,“देव मैं हूँ अमित,पहचाना या पूरी तरह से भूल गया?”

मैंने कहा,“नहीं। मैं तुझे कैसे भूल सकता हूँ,कभी भी नहीं,कम से कम इस जन्म में तो नहीं।”

वो मुस्कराया,“हां न,मैंने तो काम ही कुछ ऐसा किया था। खैर तूने मुझे बुलाया है। मुझे अन्दर नहीं बुलाएंगा रे।”

मैंने कहा, “आना। अन्दर आ,तेरा ही घर है।”

मैंने उसके कंधे के पार देखा। दूर दूर तक कोई नज़र नहीं आया।

मैंने अमित की ओर देखा,वो मुझे ही देख रहा था। जैसे ही उससे नज़रे मिली,वो मुस्कराया। “अब भी तेरी आँखे उसे तलाश करती है देव?” उसने मुझसे पुछा।

मैंने कोई जवाब नहीं दिया,जिसे मैंने दिल से चाहा हो,उसे तो हमेशा ही मेरी नज़रे ढूंढेंगी। ये बात ये व्यापारी क्या समझेंगा।

वो अन्दर आया,चारो तरफ देखा,और कहा, “वैसे ही है रे। कुछ भी तो नहीं बदला। हाँ शायद सफेदी करवाई है बस और कुछ नहीं।”

मैंने कुछ नहीं कहा। उससे क्या कहता।

वो भीतर आया और घर के किनारे में रखे हुए सोफे पर बैठ गया।

उसने हँसते हुए कहा,“देव, कुछ भी तो नहीं बदला है। सब कुछ वैसे ही रखा हुआ है। वही पुराना घर। पुराना सोफ़ा,पुराना फर्नीचर, तेरी तरह!”

मैंने उसकी ओर देखा और कहा,“हां तो,क्या हुआ,मेरा मन इसमें लगता है। बस वही मेरे लिए काफी है। और फिर मुझे मेरा पुरानापन पसंद है।”

उसने हँसते हुए कहा,“मेरा घर इससे कई गुना बड़ा और खूबसूरत है,आज आधे संसार में मेरे घर बने हुए है,इससे अच्छा सोफ़ा तो मेरे नौकर के घर में होंगा।” कहकर उसने खिल्ली उड़ाने वाली नज़र से मुझे देखा। वो मेरी हंसी उड़ा रहा था।

मैं चुप रहा। मैंने उसे गहरी नज़र से देखा और कहा, “तू बदला नहीं अमित।”

उसने कहा,“इसमें बदलने की क्या बात है,जो है सो वही मैने कहा।”

मैंने हँसते हुए कहा,“हाँ, तेरे पास कई बड़े घर है,वो भी आधे संसार में,लेकिन तूने उन सबको अपने पुस्तैनी मकान की नींव पर बनाया है। होंगे तेरे पास वो सारे घर,लेकिन आज वो तेरा पुराना घर नहीं है जिसमे तू कभी खेलता था। पैदा हुआ,पढ़ा लिखा, बढ़ा हुआ और इस काबिल बना कि उस घर को बेचकर उसे और इस देश को छोड़कर विदेश चला गया। जिसके पास अपने गाँव का घर नहीं,जिसमे उसने दिवाली का पहला दिया जलाया हुआ हो,उसके पास क्या है। वो तो बहुत गरीब हुआ जो कि तू है।”

अमित का चेहरा गुस्से में लाल सा हो गया। फिर हम दोनों के बीच बहुत देर की ख़ामोशी रही।

मैंने कहा, “चाय पियेंगा रे?”

उसने करवट बदलते हुए कहा,“हाँ।”

मैंने उससे पुछा,“मैंने निम्मो को और बच्ची को भी बुलाया था। वो लोग नहीं आये?”

अमित ने कहा, “आये है,हम सब कल देर रात यहाँ पहुंचे है,बिटिया की तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही थी, मैंने उन दोनों को थोड़ी देर आराम कर के आने को कहा है।”

मैं किचन में गया और केतली में चाय उबालने रखा। मेरे पीछे अमित आ गया था।

मैंने उसे गहरी नजर से देखा,वो भी बुढा हो ही गया था,लेकिन मैं ज्यादा बुढा लगता था। वो थोडा कम लगता था। मुझे चश्मा लग गया था,उसे नहीं,मैं लगभग गंजा हो गया था, वो नहीं,वो अब भी सुन्दर और बेहतर दिखता था,मेरे नजरो के सामने से २५ बरस पहले के बहुत से चित्र गुजर गए।

उसने मुझे देखा और पुछा,“तू क्यों चाय बना रहा है,कोई और नहीं है?”

मैंने एक पल रूककर,भीगे स्वर में कहा,“मैंने शादी नहीं की अमित।”

वो चुप हो गया। मैंने उसकी ओर देखा और उसने मुझे देखा।

२५ बरस पहले के पल हम दोनों के बीच में फिर ठहर से गए थे।

मैंने उससे पुछा, “शक्कर कितनी?”

उसने कहा, “तू बना तो। तेरे हाथ की चाय पीऊंगा। बरसो बीत गए।”

मैंने कहा, “ठीक है,आज तुझे मैं गुड़ की चाय पिलाता हूँ। याद है,हम दोनों कितना पिया करते थे।”

उसने फिर मेरी खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज में हँसते हुए कहा, “लेकिन यार देव, तूने अपने आपको नहीं बदला,अपने माइंडसेट को नहीं बदला,वही का वही रहा। आज भी केतली में चाय! यार मेरे नौकर भी इलेक्ट्रिक स्टोव में कॉफ़ी बनाकर पीते है। मैंने तो बरसो से चाय नहीं पी,मैं तो दुनिया की बेहतरीन कॉफ़ी पीता हूँ।Rwanda Blue Bourbon, Hawaiian Kona Coffee,Hacienda La Esmeraldaमैं तो सिर्फ इन ब्रांड्स के काफी को पीता हूँ।”

मैंने उसे टोककर कहा, “फिर भी मेरे घर की चाय पीना चाहता है।”

मैं सर हिलाते हुए हंस पड़ा।

उसने खिसियाने स्वर में कहा,“तो क्या हुआ,दोस्त के घर में उसके पास जो होंगा वही तो पिऊंगा न।”

मैंने सूखे हुए स्वर में कहा,“दोस्त? क्या तू इस शब्द के अर्थ समझता है अमित। नहीं! न तब और न ही अब!”

एक लम्बी खामोशी छा गयी। मैंने चाय उबाली और उसे कप में दिया। वो चुपचाप चाय पीने लगा। मैंने घर की खिडकियों को खोल दिया,ताज़ी हवा भीतर आई। दूर कहीं आरती चल रही थी।

उसने कहा,“संगम के हनुमान मंदिर की आरती है न।”

मैंने कहा,“हाँ !”

बहुत सी यादे हम दोनों के दरमियान फिर तैर गयी।

हम दोनों ने चुपचाप चाय पी।

चाय ख़त्म हुई। मैंने अमित से पुछा, “वो दोनों कब तक आयेंगे?”

अमित ने कहा, “शायद दोपहर तक। तू मिलना चाहता था। हम सबसे। हमें देरी हो गयी आने में। वीसा इत्यादि में समय लग गया। बोल, क्या बात है।”

मैंने कहा,“कोई खास नहीं,बस एक बार तुम सभी को देखना चाहता था।”

एक अजनबी सी चुप्पी हम दोनों के बीच फिर आ गयी।

फिर अमित ने कहा, “तू कितना बुढा हो गया है। तूने उस कॉलेज की नौकरी को छोड़ देना था,ज़िन्दगी भर एक ही जगह रहने में क्या तुक है। तुझे मिला क्या,कुछ भी नहीं। वही छोटी सी नौकरी,वही तन्खवाह। कुछ किताबो में लिख पढ़ कर छप गया। बस और क्या? तू जहाँ था,वही पर खड़ा है देव। क्या खोया और क्या पाया,कभी हिसाब किताब लगाया है तूने ? सिफर! ए बिग जीरो! और कुछ भी नहीं। अबे; मुझे कहता है,पुश्तैनी घर के बारे में,अरे तूने क्या कर लिया,तू तो अपने नाम का एक घर भी नहीं बना सका। पड़ा हुआ है साले अपने पुराने घर में। और मुझे ज्ञान देता है।” इतना कहकर वो हांफने लगा!

मैंने उसकी सारी बाते सुनी। सच्ची बात थी,पर कडवी थी।

मैंने कहा,“व्यापारी तो तू है अमित। हिसाब किताब करना तू जाने। ज़िन्दगी भर तो वही करते आया है न। खरीदना और सिर्फ खरीदना। नहीं?” वो चुप रहा।

उसके चेहरे पर एक रंग आ रहा था और एक रंग जा रहा था।

२५ बरस पुरानी दुश्मनी अब हम दोनों के जुबान में आ गयी थी।

मैंने आगे कहा, “और फिर मुझे किसके लिए घर बनाकर रखना है,मैं तब भी अकेला ही था अब भी अकेला ही हूँ और अकेला ही जाऊँगा। मेरे तो आगे पीछे कोई नहीं; और रही बात मेरे जीरो होने की। तो ठीक है न। जो हूँ,उसमे खुश हूँ। मेरे हिसाब किताब में वो सब कुछ नहीं है,जो तेरी बैलेंस शीट में है। हाँ, एक रिश्ता मैंने बुना था, दोस्ती का तुझसे ! और..............!”

अमित ने हँसते कहा, “और एक रिश्ता बुना मोहब्बत का निर्मल से! जो तेरी न बन सकी। उसने मुझे चुना था देव। वो भी आज से २५ साल पहले। तू तब भी मुझसे हारा था और आज भी तू मुझसे कही पीछे, बहुत ज्यादा पीछे है।”

मैंने कहा, “हां। ये सही है अमित। मैं न दोस्ती जीत सका और न ही मोहब्बत। दोनों रिश्ते मैं हार गया था शायद। पर ज़िन्दगी का हिसाब किताब मुझे तेरी तरह नहीं आता है अमित। देख ले आज तू और निर्मल दोनों ही मेरी यादो में है। जबकि तूने दोबारा मुड़कर नहीं देखा , न ही मुझे और न ही इस शहर को ! हाँ, दोस्ती और मोहब्बत के अलावा भी एक रिश्ता बुना है मैंने। शब्दों से। शब्दों की तासीर से। शब्दों की परछाईयो से। शब्दों की दीवानगी से और शब्दों में धडकती ज़िन्दगी की छाँव से। और अब वही मेरी पहचान है। किताबे मेरी साथी बन गयी है । अमित, मैं अपना अकेलापन शब्दों से भरता हूँ और जीवित रखता हूँ खुद को। लिखना पढना ही अब मेरी पहचान है और वही शायद मेरे संग जायेंगी ! मेरे लिए रिश्ते तेरे व्यापार से कहीं बहुत ज्यादा और बहुत ऊपर है मेरे दोस्त !” अब मैं हांफने लग गया था। मैं थक गया था !

अमित ने मुझे पकड़कर बिठाया। मैं आँखे बंद करके बहुत देर तक अमित का हाथ पकड़कर बैठा रहा। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। एक अजीब सी ख़ुशी मन में आ रही थी। मेरे सबसे अच्छे दोस्त का हाथ था।

हम दोनों बहुत देर तक बैठे रहे। मेरे हाथ में उसका हाथ था और उसके हाथ में मेरा हाथ! हम दोस्त थे। बचपन के। भला उस दोस्ती की महक कैसे चली जाती। मेरी आँखों में बीते दिनों की याद आंसू ले आई। मैंने उठकर उसे अपने गले लगा लिया। बहुत देर तक हम यूँ ही एक दुसरे के गले लगे रहे। फिर मुझे लगा कि मेरा कन्धा उसके आंसुओ से भीग रहा है। मैंने उसे धीरे से अपने से अलग किया,देखा तो उसकी भी आँखे भीगी थी और मेरी भी। हम एक दुसरे को बहुत देर तक देखते रहे। एक पूरा जीवन हमने साथ जिया था। बरसो के पहले के चित्र बंद आँखों के सामने से गुजर गए। एक पूरी ज़िन्दगी आँखों में से गुजर गयी।

मैंने उससे कहा कि वो जाकर निर्मल और बच्ची को ले आये।

उसने हामी में सर हिलाया और जाने लगा ।

मैंने पुछा, “बच्ची का नाम क्या है अमित ।”

वो जाते जाते लौटा और मुस्कराया और मुझसे कहने लगा, “यहाँ मैं तुझसे फिर जीत गया हूँ देव। तूने और निर्मल ने सोचा था कि तुम्हारी संतान होंगी और अगर वो बेटी हुई तो उसका नाम तुम अपेक्षा रखोंगे। जब हमें बेटी हुई तो निर्मल ने मुझसे इस नाम की रिक्वेस्ट की और मैं मान गया। मेरी बेटी का नाम तेरे सपनो की बेटी का है। अपेक्षा!”

मैं अवाक था। मेरी आँखे और भीग गयी,मैं कुछ न कह सका और उसकी ओर देखकर मैंने अपनी बांहे फैला दी। उसने मुझे देखा और बिना मेरी बांहों में आये घर से बाहर चला गया ।

मैं फिर अपने आराम कुर्सी पर बैठ गया। मैं काँप रहा था। ज़िन्दगी भी क्या क्या रूप दिखाती है। मैं एक निशब्द एकांत के साए में चला गया। और बीते हुए समय की परतो में पता नहीं क्या तलाश करने लगा।


२५ बरस पहले..............!

/// एक ///

बरसो पहले हम दोनों की दोस्ती सारे इलाहाबाद शहर में मशहूर थी। एक ही साइकिल पर घूमना,साथ साथ रहना,पढना और खाना पीना तक साथ-साथ । कभी मैं उसके घर रुक जाता,कभी वो मेरे घर रुक जाता। दोनों के घरवालो में सिर्फ पिता ही बचे थे। ज़िन्दगी अपनी गति से भाग रही थी। समय जैसे पलक झपकते ही बदल जाता था। स्कूल से कॉलेज तक का सफ़र और फिर नौकरी लगने तक का सफ़र। सब कुछ साथ साथ ही रहा। रोज सुबह संगम के तट पर भागना और फिर हनुमान जी के मंदिर की आरती में शामिल होना और फिर अपना दिन शुरू करना। ज़िन्दगी बहुत ही खूबसूरत थी । फिर उसके पिता नहीं रहे। वो हमारे संग ही रहने लगा। फिर मेरे पिता भी नहीं रहे। हम फिर भी साथ ही रहे। कभी मैं उसके घर तो कभी वो मेरे घर। हर दिन सिर्फ हमारी दोस्ती को बढाता ही था। मेरी नौकरी लगी एक कॉलेज में शिक्षक की,जो कि मेरे मन की थी। अमित को नौकरी पसंद नहीं थी। वो छोटे मोटे काम करते रहा। फिर उसने मसालों का व्यापार शुरू किया। धीरे धीरे उसने उस व्यापार में अपने पैर जमाने शुरू किया। मैं अपनी नौकरी में खुश और वो अपने व्यापार में खुश। कुछ भी हो जाए हम साथ में रात का खाना जरुर खाते थे।

सब कुछ ठीक ही था जब तक कि, निर्मल से मेरी मुलाकात नहीं हुई।

निर्मल मेरे ही कॉलेज में लेक्चरर बनकर आई और पहले ही दिन मैं उस से प्रेम कर बैठा। मैं हिंदी पढाता था और वो भी हिंदी ही की लेक्चरर थी। बस धीरे धीरे मुलाकाते हुई और प्रगाढ़ता बढ़ी। वो मुझे पसंद करती थी और मैं उसे चाहता था। हम दोनों में कितनी बाते एक जैसी ही थी। ...........हिंदी...कविता...प्रेम....जीवन को मुक्तता से जीना और दोनों का ही शिक्षण के क्षेत्र में होना। सब कुछ कितना अच्छा था। मेरा तो आगे पीछे कोई नहीं था। पर उसके घर में उसके माता –पिता थे। वो एक मिडिल क्लास फॅमिली से थी। और उसके सपने थे। ज़िन्दगी की शुरुवात में जो गरीबी उसने देखी थी, उससे वो बाहर आना चाहती थी। बस इस एक विषय पर हम अलग थे। मैं सपने ज्यादा देखता नहीं था और अगर सोचता भी था तो सिर्फ एक मामूली ज़िन्दगी के बारे में ही सोचता था। गरीबी मैंने भी देखी थी पर मैं बहुत संतोषी था। निर्मल को संतोष नहीं था। उसके सपने बहुत बड़े थे। और मुझे ये बात बुरी नहीं लगती थी। सब मेरी तरह साधू तो नहीं थे न! मैं उसके परिवार से मिला। उन्हें मैं अच्छा लगा और मुझे वो सब। मैंने सोच लिया था कि निर्मल से ही शादी करके घर बसाऊंगा। मैंने निर्मल से शादी की बाते की। उसने हां कह दिया!

मैंने अमित को निर्मल के बारे में बताया। वो भी मिलना चाहता था। पर उन दिनों वो अपने व्यापार के सिलसिले में केरल, गोवा तथा अन्य जगहों पर जाता था और धीरे धीरे एक्सपोर्ट्स के बारे में सोच रहा था।

/// दो ///

दिवाली के दिन थे,जब वो वापस आया। आते ही मुझसे लिपट गया और कहने लगा, “अबे देव,मुझे एक्सपोर्ट का लाइसेंस और परमिशन मिल गया है और बहुत जल्दी ही मैं अपना काम दुसरे देशो में स्टार्ट करूँगा,तू ये नौकरी छोड़ और मेरे साथ आ जा।” मैंने हँसते हुए कहा, “अरे, ये धंधा तुझे ही मुबारक हो,मैं यही ठीक हूँ। हां; तू आगे बढ़, मुझे इससे ज्यादा ख़ुशी क्या होंगी”

उसने हँसते हुए कहा, “तू नहीं बदलेंगा रे। अच्छा ये सब छोड़,मुझे बता तू मुझे निर्मल से कब मिला रहा है।”

मैंने कहा, “आज दिवाली है, शाम को उसके घर चलते है”

हम शाम को तैयार हुए । वो तब भी मुझसे खुबसूरत ही था और अब कुछ नए कपडे भी खरीद लिया था। मेरे लिए भी कपडे लाया था। मैंने उसका लाया हुआ कुरता पहना और उसने कोट पैंट। मैंने कहा, “तू तो यार और अच्छा लग रहा है।” वो हंस दिया। हम दोनों निर्मल के घर चले। उसने कई उपहार खरीद रखे थे निर्मल के लिए, उसने वो सब ले लिए,मैंने कुछ मिठाई खरीदी और हम दोनों रिक्शे में बैठकर उसके घर पहुंचे।

निर्मल इलाहाबाद के मीरगंज इलाके में रहती थी। मैंने अमित को उसका घर दिखाया। घर दियो से सजा हुआ था। मैंने कहा,”अमित यहाँ से चलकर तेरे घर में भी दिए जलाना है।” अमित ने कहा,”ठीक है न यार। बस यहाँ से चलते है थोड़ी देर में।”

मैंने निर्मल का दरवाजा खटखटाया। निर्मल ने दरवाजा खोला। वो बहुत सुन्दर लग रही थी। उसने मेरे मनपसंद रंग गहरे नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी। अमित उसे देखते ही रह गया। मैंने उन दोनों का परिचय एक दुसरे से कराया। अमित ने धीरे से मुझे कुहनी मार कर कहा, “अबे ये तो बहुत सुन्दर है। तुझ जैसे बन्दर को कहाँ से मिल गयी।” मैंने हंसकर कहा,“अपने अपने नसीब है रे,कभी कभी हम जैसे लंगूर को हूर मिल जाती है” ये सुनकर निर्मल शरमा गयी और हम सब हंस पड़े।

हम सब उसके परिवार से घुल मिल गए। अमित का रंग निर्मल के परिवार पर कुछ ज्यादा ही जमा हुआ था। निर्मल के पिता उससे काफी प्रभावित हुए। मुझे लग रहा था कि निर्मल को मिले हुए सपने उसके पिता के सपनो का ही एक्सटेंशन है। खैर हमने पूजा की और फटाके फोड़े। निर्मल और अमित ने खूब फटाके फोड़े। अमित के लाये हुए उपहार सभी को पसंद आये। हम वापस चल पड़े ।

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