गोपाला ने अपना एक झोला और बैग लिया और ट्रेन में बैठ गया, ये ट्रेन दुर्ग से जगदलपुर जा रही थी। गर्मी के दिन थे, उसे खिड़की के पास वाली सीट मिली ।
ट्रेन चलने लगी तो भागते हुए तीन युवक आये और ठीक उसके सामने वाली सीट पर बैठ गए ।
ट्रेन चल पड़ी तो थके होने के कारण थोड़ी देर में ही ट्रेन में आनेवाली हवा के कारण गोपाला को नींद आ गयी । कुछ देर बाद आवाजो के शोर से गोपाला की नींद खुल गयी, देखा तो वे तीनो युवक एक पुलिस वाले से उलझ रहे थे और एक बेवजह की बहस कर रहे थे ।
गोपाला ने बीच बचाव किया और फिर उन तीनो युवको को समझाने लगा ।
बातों बातों में पता चला कि वो बस्तर के ही रहने वाले है और वहां के पीड़ित आदिवासियों में से ही कुछ युवक है।
उनकी बातों से गोपाला को लगा कि वो किसी गलत राह पर चलने के लिए मानो तैयार बैठे है । बस कोई उन्हें पकडे और विद्रोह की राह पर उन्हें ले चले और उनका भी जीवन खराब हो जाए ।
गोपाला ने उनसे कहा कि वो क्या चाहते है, उन्होंने एक साथ कहा कि वो बदला लेना चाहते है । गोपाला मुस्करा उठा, बरसों पहले उसने भी कुछ ऐसा ही कहा था ।
गोपाला ने उनसे कहा कि वो उन्हें एक कहानी सुनायेगा, उसके बाद वो निर्णय ले कि उन्हें क्या करना है ।
वे तीनो युवक मान गए ।
गोपाला ने उन्हें कहानी सुनाना शुरू किया !
/// भाग एक - कुछ साल पहले \\\
राज्य के देवारागढ़ गाँव के कुछ दूर में ही दलितों का वास था।
गाँव में अक्सर दलितों का शोषण ही होता था। धनवान और जमींदार उनकी ज़िन्दगी जितनी ख़राब कर सकते थे; करते थे। दलित गाँव के बाहर ही रहते थे और डरे-सहमे से अपनी ज़िन्दगी को कोसते हुए जीवन गुजारते थे। हर दिन ही कुछ नया तमाशा हो जाता था। बेचारे दलितों की कोई सुनवाई नहीं थी। धनवान और जमींदार अपने आपको आज के युग का राजा ही समझते थे। दलितों पर जितने भी अत्याचार हो सकते थे, वो किये जाते थे । और आजादी के इतने साल के बाद भी उनकी दशा खराब ही थी।
ऐसे ही ख़राब माहौल में, एक दिन गाँव के जमींदार और धनवानों के बेटो ने अपनी-अपनी भैंसों को गाँव के बाहर चारा खिलाने और नहलाने के लिए लेकर आये। बिगड़े हुए धनवानों के और उनसे ज्यादा बिगड़े हुए उनके बच्चों ने आज दलितों को एक नए तरीके से सताने की सोची। उन्होंने अपनी भैंसों को ले जाकर उस पोखर में नहलाना शुरू कर दिया, जिस पोखर का पानी दलित लोग पीने के लिए इस्तेमाल करते थे। ये देखकर दलितों के समूह के दो युवको ने विरोध किया । उनके विरोध की सजा उन्हें ये मिली कि उन्हें लातो से मारा गया और फिर हंटर से पीटा गया। ये देख कर एक दलित महिला देवी ने विरोध किया। दोनों धनवान युवकों ने उस पर भी हंटर से हमला किया, हंटर की पिटाई से बचने के लिए देवी ने अपनी बाल्टी उठाकर उस वार को रोका। दोनों बिगड़े हुए बच्चो ने ये सोचा कि एक दलित औरत ने उनपर हमले के लिए बाल्टी उठायी, अब तो इस गाँव को सबक सिखाना ही होंगा।
वे अपनी भैसों को लेकर गाँव वापस गए, अपनी कहानी अपने पिता जमींदार धनराज को सुनाई। धनराज ने आस-पास के गाँवों से अपनी ही जाति के लोगो को इकठ्ठा किया और दूसरे ही दिन गाँव के बाहर बसी उस दलित बस्ती पर हमला करने की योजना बनायीं गयी।
सुबह के लगभग चार बजे थे, जब उस गाँव के और आस पास के गाँवों के ठाकुरों ने, धनवानों ने, जमींदारों ने धन और शराब के नशे में गाँव के बाहर बसी हुई दलित बस्ती पर हमला किया। उन्होंने बस्ती के हर घर में घुसकर सोते हुए परिवारों को निकाला और उन सब पर हमला बोला।
बस्ती के युवको को पीटा गया और फिर उन्हें तडपा तडपा कर मारा गया। मरने वालो में रामा भी था।
बाद में गाँव की औरतो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। उन औरतो में देवी भी थी जो रामा की पत्नी थी। बाद में उनमे से कुछ औरते दुःख दर्द से मर ही गयी। देवी भी उनमे से एक थी।
सारी बस्ती को आग लगा दी गयी। बच्चे रोते चिल्लाते रहे। पूरे दिन भर ये भयानक नरसंहार हुआ और मानवता के मुख पर कालिख पोती गयी।
देर रात को बस्ती के बचे हुए बूढों और कुछ बचे हुए युवको में बैठक हुई। उस बैठक में रोते हुए और दुःख और क्रोध में उबलते हुए एक युवक का क्रंदन सभी को द्रवित कर देता था। उसका नाम गोपाला था। सारे गाँव में वही सबसे ज्यादा पढ़ा लिखा था। मारे गए लोगो में रामा और देवी, गोपाला के भाई और भाभी थे।
लोगो ने कहा कि पुलिस में रिपोर्ट किया जाए, सारी बस्ती के लोगो ने पहले तो विरोध किया, ये कह कर कि कुछ भी नहीं होंगा। लेकिन फिर भी वो लोग पुलिस स्टेशन गए, वहाँ पर पहले ही धनराज ने रिश्वत देकर पुलिस को अपनी तरफ कर रखा था। किसी ने भी दलितों की बाते नहीं सुनी। बल्कि गोपाला के ज्यादा चिल्लाने पर, उसे ही हिरासत में रखा गया। दो दिन के बाद उसे छोड़ा गया। जब वो हवालात से बाहर निकला तो वो दूसरा ही गोपाला बन गया था। उसकी मासूमियत धनराज जैसे लोगो की गुंडागर्दी और पुलिस की मार ने ख़त्म कर दी थी अब उसके मन में सिर्फ एक ही बात थी !
………………………………………बदला और बस बदला !!!
बस्ती का आलम बहुत बुरा था, बच्चों को कोई ठीक से देखभाल नहीं कर पा रहा था। सारे काम बंद हो गए थे। कुछ लोग बाहर से आये और सिर्फ बाते करके चले गए।
गोपाला का मन अब किसी काम में नहीं लगता था !
फिर एक रात आई। गहरी काली अमावास की रात !!!
आधी रात को गोपाला के झोपडी में आवाज दी गयी, गोपाला बाहर आया तो उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी गयी और उसे चुपचाप चलने को कहा गया। इस आवाज़ में ऐसा कुछ था, जिसका गोपाला विरोध नहीं कर सका ।
बहुत दूर चलने के बाद उसकी आँखे खोल दी गयी, अँधेरे में जब वो देखने लायक हुआ तो उसने देखा कि कुछ लोग एक झुण्ड में बैठे है और साथ में उसकी बस्ती के कुछ बूढ़े और युवक भी बैठे है।
वो कुछ कहता इसके पहले एक आवाज़ आई, ‘गोपाला, हम चाहते है कि तुम, तुम्हारे समाज पर हुए जुल्म का बदला लो और इस काम में हम तुम्हारी मदद करेंगे ।’
गोपाला ने देखा तो एक बलिष्ठ व्यक्ति उसे संबोधित कर रहा था। उसने कहा, ‘मैं इस दलम का नेता हूँ। मेरा नाम राजू है और सब मुझे राजू भैया कहते है।’
नेता ने आगे कहा, ’हमें सब पता है गोपाला कि तुम्हारे साथ क्या हुआ है; तुम्हारे भाभी और भैया के साथ क्या हुआ है और हम तुम्हारी मदद करने यहाँ आये है ।’
ये सुनकर गोपाला रोने लगा।
दलम के नेता ने गोपाला को कहा, ’रोने से कुछ न होंगा बबुआ, तुम्हे अपने भाई और भाभी पर हुए अत्याचार का बदला लेना ही होंगा। उठो आओ हमारे साथ जुडो, हम अपने दलित और आदिवासी भाईयो और बहनों पर और अत्याचार नहीं होने देंगे।’
दलम के नेता ने चिल्लाकर सब से पुछा, ’बोलो हमें बदला लेना चाहिए या नहीं’
सब ने चिल्लाकर कहा, ‘हां, हां, हाँ !!’
गोपाला ने उनके बारे में सुना हुआ था। उसके मन में अलग द्वंध चल रहा था कि वो क्या करे।
राजू भैया ने शायद उसके मन की बात समझ ली। उसने गोपाला को अपने पास बिठाया और किसी को एक इशारा किया। एक व्यक्ति ने कुछ खाना लाकर गोपाला के सामने रख दिया। दूसरे लोग भी चुपचाप थे। राजू ने गोपाला से कहा, ’खा लो बबुआ, जीने के लिए खाना जरुरी है। खा लो !’
‘मेरी बात सुनो। अगर तुम बदला नहीं लोगे तो ये लोग कल किसी और जगह जाकर उनपर अत्याचार करेंगे। क्या हमें अपने भाई बहनों को बचाना नहीं चाहिए। क्या हमारा कोई कर्तव्य नहीं है। इस समाज में हमारा तिरस्कार ही हुआ है, दोहन और शोषण ही हुआ है। लेकिन हम कब तक इसे सहेंगे। हमें इसका जवाब देना ही होगा। हमारे दलम में जितने भी लोग है, सब इस समाज के सताए हुए ही है। हम सबने अपने अपने परिवार का कोई न कोई हिस्सा इन जुल्म करने वालो के कारण खोया हुआ है।’
राजू भैया ने कुछ देर रुक कर कहा, ’लेकिन अब नहीं चलेंगा। हमें बदला लेना ही होंगा। और हम बदला लेंगे।’ राजू भैया ने गोपाला की ओर देखा और अपने जेब से एक पिस्तौल निकालकर उसके हाथो में थमा दी। गोपाला के हाथ कांपने लगे।
राजू ने उसके कंधे पर हाथ रखा, उसे थपथपाकर शांत किया और फिर दलम के लोगो को चिल्लाकर कहा, ’हम आज ही बदला लेंगे। चलो सब गाँव में !’
देर रात को सब गाँव में पहुंचे, धनराज के घर पर सब गए, उसे उठाया गया और सारे परिवार के सामने उसे बाँध दिया गया। राजू भैया ने गोपाला से कहा, ’देख बबुआ, ये है तुम्हारे भैया और भाभी का हत्यारा, तुम्हारी बस्ती में कई लोगों का हत्यारा कई लोगों पर इसने और इसके कहने पर इसके साथियों ने अत्याचार और बलात्कार किया है। इसे जिंदा रहने का कोई हक नहीं है। मार दो इसे बबुआ। मार दो।’
दलम के सारे साथी चिल्लाकर कहने लगे’ ‘हाँ मार दो इस राक्षस को ; मार दो इसे ।’
पता नहीं गोपाला ने कब हाथ सीधा किया, कब पिस्तौल धनराज के सीने पर रख दी और कब पिस्तौल की सारी गोलियां उस पर दाग दी।
सबने जब चिल्ला कर कहा, ’गोपाला की जय ! दलम की जय !’
राजू भैया ने सबको शांत होने को कहा और कहने लगे ‘आज से गोपाला का नया जनम हुआ है। उसका नाम अब बबुआ है। और वो अब मेरा दांया हाथ बनकर काम करेंगा। बोलो बबुआ की जय !’
सबने एक साथ कहा, ’बबुआ की जय, दलम की जय, राजू भैया की जय ।’
दलम के लोग गोपाला को लेकर घने जंगलो में चले गए। अब गोपाला, बबुआ बन गया था।
/// भाग दो – बीता हुआ कल \\\
धीरे धीरे राजू भैया और गोपाला का दल मिलकर आस पास के गाँवों में जाकर पिछड़ों और दलितों की मदद करने लगे, उन पर हुए अत्याचार का बदला लेने लगे। दलम अब एक शक्तिशाली संगठन बन रहा था। उसकी कई शाखाएं बन गयी थी।
अब बबुआ उर्फ़ गोपाला एक खतरनाक नक्सलवादी के रूप में उभर रहा था। दो-तीन राज्य की सरकारें उसकी तलाश में थी और वो जंगलो में भागा भागा फिरता रहता था। अब जिस मकसद से गोपाला इस दलम में आया था, वो शायद कभी-कभी कहीं पीछे छूट जाता था। कभी कभी पुलिस के साथ झडप में जब किसी की जान जाती थी, चाहे वो उनका साथी हो या पुलिस वाला हो, तो गोपाला का मन व्यथित हो उठता था।
उनका दलम देश में फैले हुए कई दलों में से एक था और सभी एक दुसरे से जुड़े हुए थे। उनकी सफलता की वजह उन्हें स्थानीय स्तर पर मिलने वाला समर्थन था, आदिवासी और गरीब तबके के लोग और पिछड़े हुए जाति के लोग उन्हें अपना मसीहा मानते थे। और उनका कहना था कि वो उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं जिन्हें सरकार ने दशकों से अनदेखा किया है। और ये सभी दल इस बात को भी मानते थे कि वो जमीन के अधिकार और संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते है और वो देर सबेर 'एक कम्युनिस्ट समाज' की स्थापना करना चाहते हैं, हालांकि उनका प्रभाव आदिवासी इलाकों और जंगलों तक ही सीमित था। शहरी इलाकों में उन्हें आम तौर पर हिंसक और चरमपंथी माना जाता था । और अक्सर जब भी इनके और पुलिस के बीच में कोई झडप होती और पुलिस या सेना या कोई और जवान की मौते होती तो सारे देश का गुस्सा इन पर टूट पड़ता था । और तब गोपाला का मन दुखी हो उठता था। वो सोचता था कि अपने ही भाई-बहनों से कैसी लड़ाई. कभी-कभी उसे सब कुछ ठीक लगता था और कभी कभी सब कुछ गलत।
इसी दुविधा भरी मानसिक अवस्था में एक दिन वो दास बाबू से मिला। दास बाबू बंगाल से उनके दलम से मिलने आये थे और हर दल में जाकर दल के लोगों से मिलते थे। वो इस दलम के सबसे पुराने साथियो में से एक थे और सभी दल के लोग उनकी बहुत इज्जत करते थे और उनका मान रखते थे।
दास बाबू से उसने अपने मन की बात कही और दास बाबू ने बहुत धैर्य के साथ उसकी सारी बातें सुनी । फिर एक रात को दास बाबू ने दल के सभी साथियों को इकठ्ठा किया और उनसे नक्सलवाद पर अपने विचारों को बांटा। सबका खाना हो चुका था। पूर्णिमा के चाँद की रौशनी जंगल में बिखरी थी और दास बाबू सभी से अपनी बाते कह रहे थे।
उन्होंने कहना शुरू किया : ‘आज मैं तुम सब से कुछ बाते कहना चाहता हूँ, गोपाला का मन उसके दो रूप – बबुआ और गोपाला के बीच में डोल रहा है और ये स्वाभाविक भी है। हमारे दलम के लोगो से भी बहुत सी गलतियां हुई है और सरकार के लिए जैसे हम आतंकवादी ही है। हमें एक दूसरे के बारे में थोडा समझना होंगा। कहीं कहीं हम ठीक है तो कहीं कहीं वो ठीक।’
गोपाला ने बीच में कहा, ’दादा, कुछ दिन पहले गाँव के आदिवासी कह रहे थे कि हमारे दलम के लोग उन पर कभी-कभी सरकार से भी ज्यादा जुल्म करते है ; ये सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ दादा। हम ये तो नहीं चाहते थे। ये क्या हो गया है, कहाँ चूक हो रही है’
दास बाबु ने कहा, ’मैं सब कुछ बताता हूँ बबुआ ! इतिहास कुछ इस तरह से है कि नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है, जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की और वही आन्दोलन धीरे धीरे देश के बहुत से अविकसित क्षेत्रो में फ़ैल गया । आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गये हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेते है। लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं। 1947 को अंग्रेज चले गए। लेकिन उनका काम करने वाले उनके पिट्ठू जमींदार गाँवों में ही रह गए। गांव वालों पर इसके अत्याचार ने ही नक्सलवाद को जन्म दिया। माँ, बहन, बेटियों पर इनकी बुरी नजर, लगान के नाम पर लोगों की जमीन हड़प लेना। बुरे व्यक्ति का कौन सम्मान करना चाहेगा? इन्हे सम्मान न देने पर मारपीट व अत्याचार करना, बस ऐसी ही बातें होती गयी । व्यक्ति सहनशक्ति होने तक ही सहन कर पाता है असहनीय होने पर विद्रोह कर बैठता है। और उस समय स्थानीय पुलिस ने भी धनी मानी संपन्न जमींदारों का ही साथ दिया। परिणामस्वरूप इन विद्रोह करने वालों को जंगल में शरण लेना पड़ा। इसी तरह सताए हुए दूसरे गांव के लोग भी उनसे मिलते गए और सताए हुए लोगों का एक संगठन बनता चला गया। जो आज नक्सलवादी आन्दोलन के रूप में जाना जाता है।’
गोपाला ने कहा, ’दादा, पर कुछ लोग मानते है कि आदिवासी नक्सलवादियों की ढाल है। नक्सलवादियों का असली लक्ष्य सत्ता पर कब्जा करना है, आदिवासियों की भलाई करना नहीं। एक बात और है, आदिवासी भारत के सबसे सताए हुए लोग हैं। जंगल उनके पुश्तैनी घर हैं। इन घरों से उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। जो वहाँ रह रहे हैं, वन विभाग के अधिकारी उन पर तरह-तरह के जुल्म ढाते हैं। इसलिए आदिवासियों को भड़का कर उन्हें अपने साथ कर लेना नक्सलवादियों के लिए आसान है। बहुत से लोग कहते ये भी है कि आदिवासी सरकारी कर्मचारियों से आजाद हो कर नक्सलवादी कार्यकर्ताओं के कब्जे में आ गए हैं। इन इलाकों में वही होता है, जो नक्सवादी चाहते हैं। अफसरों के खिलाफ तो फिर भी थोड़ा-बहुत लड़ा जा सकता था, पर नक्सलवादियों की मर्जी के खिलाफ कोई चूँ तक नहीं कर सकता। जिसने भी असहमति दिखाई, उसे पुलिस का मुखबिर बता कर उसका सिर कलम कर दिया जाता है। इस तरह आदिवासी पूर्णतः विकल्पहीन हो गए हैं : वे सरकार और नक्सलवादी, दोनों के बीच पिस रहे हैं।’
दास बाबु ने थोडा सोचा और फिर कहा, ’लेकीन एक सच ये भी है कि इस समय देश भर में एकमात्र नक्सलवादी ही सच्ची राजनीति कर रहे हैं। बाकी सभी नेता और दल लूट और बेईमानी कर रहे हैं। उन्हें न देश से मतलब है न समाज से। उनका एकमात्र लक्ष्य है, दोनों हाथों से लूट-खसोट। इस सड़े-गले माहौल में थोड़े-से नौजवान तो हैं जो व्यवस्था परिवर्तन के लिए जान हथेली पर रख कर चल रहे हैं। देश भर में अगर कहीं आदर्शवाद है, उसके लिए कुरबानी देने का जज्बा है, तो यहीं है, इसी नक्सलवाद में है ।’
राजू भैया ने बीच में कहा, ’लेकिन भारतीय राज्य इतना शक्तिशाली है कि उसके सामने नक्सलवादी टिक नहीं सकते। सरकार के पास पुलिस है, अर्धसैनिक बल हैं, सेना है और बहुत ताकत है। नक्सलवादी अपनी सीमित शक्ति से इनका मुकाबला कैसे कर सकेंगे? लेकिन अभी तक तो नक्सलवादी टिके ही हुए हैं ! वह भी इसलिए कि ये आदिवासी क्षेत्र देश के लिए 'नो मैन्स लैंड' थे। जंगल की लकड़ी के सिवाय और तेंदू पत्तों के अलावा सरकार को उनसे कोई मतलब नहीं था। आदिवासी जिएँ या मरें, मंत्रियों और अफसरों की बला से। इन इलाकों में न सड़कें थीं, न स्कूल थे, न अस्पताल थे, न रोजगार था। यहाँ से न इनकम टैक्स आता था, न सेल्स टैक्स, न एक्साइज। फिर वे सरकार के लिए किस काम के थे? ऊपर से वन अधिकारी और पुलिस वाले इन पर झपट्टा मारते रहे। सरकार सब सुनती-देखती थी पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती थी। उसके लिए मानो आदिवासियों का कोई अस्तित्व ही नहीं था। भारतीय समाज ने अपने आपको इनसे काट कर रखा था। जब आदिवासी रोजगार के लिए शहर आते थे, तो उनका शोषण ही होता था। खासकर लड़कियों और औरतों का। आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही जा रहा था। उन्हें न्याय दिलाने के लिए नक्सलवादी ही आगे आए। फिर ये क्षेत्र धीरे-धीरे नक्सलवादियों के रहने की जगह बन गए ।‘
गोपाला ने कहा, ’लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच चल रहे संघर्ष में ज्यादा नुकसान आम लोगों का ही हुआ है। आम लोग दोनों पक्ष यानी सुरक्षाबल और नक्सलियों के निशाने पर बने रहते हैं। जहां सुरक्षा बलों पर आरोप लगे हैं कि उन्होंने नक्सली कहकर आम लोगों को निशाना बनाया है, वहीं माओवादियों पर भी आरोप है कि उन्होंने भी पुलिस का मुखबिर कहकर कई लोगों को मौत के घाट उतारा है।’
दास बाबु ने कहा, ’मैं मानता हूँ कि बेगुनाह लोग मारे जा रहे है। केंद्र सरकार यह कह रही है कि नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या है। देश का मीडिया इस मुद्दे पर लगातार बहस करवा रहा है। कुछ विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि लाल गलियारा में थलसेना और वायुसेना उतार कर नक्सलियों को खत्म कर दिया जाए, वहीं कुछ का मत है कि नक्सलियों के साथ वार्ता करनी चाहिए। सामान्य भूमि आन्दोलन से निकलने वाली नक्सलवादी आन्दोलन में अब आदिवासी तत्व प्रचुरता से प्रविष्ट हो गए हैं। चर्चा यह भी हो रही है कि आदिवासियों पर अन्याय, अत्याचार और उनके संसाधनों को लूटकर कॉरपोरेट घरानों को सौंपने की वजह से ही यह समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। यहां सबसे आश्चकर्यजनक बात यह है कि पूरे चर्चा में कहीं भी आदिवासी दिखाई नहीं देते हैं। चूंकि समस्या आदिवासियों से जुड़ी हुई है, इसलिए उनकी सहभागिता के बगैर क्या इसका हल हो सकता है? लेकिन यहां पहले यह तय करना होगा कि देश की सबसे बड़ी समस्या नक्सली हैं या आदिवासी?’
राजू भैया और गोपाला ने एक साथ कहा, ‘ हाँ, ये तो सच है ।‘
दास बाबु ने एक गहरी सांस ली और पानी पीकर आगे कहा, ’यहां यह समझना जरूरी होगा कि प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकार को लेकर आदिवासी लोग पिछले तीन सौ वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं जबकि नक्सलवाद पिछले चार दशकों की देन है। आदिवासी योद्धा तिलका मांझी ने अंग्रेजों से कहा था कि जब जंगल और जमीन भगवान ने हमें वरदान में दिया है तो हम सरकार को राजस्व क्यों दे? लेकिन अंग्रेजी शासकों ने उनकी एक नहीं सुनी। फलस्वरूप, आदिवासी और अंग्रेजी शासकों के बीच संघर्ष हुआ। लेकिन आदिवासी जनता उनसे डरी नहीं और लगातार संघर्ष चलता रहा, जिसमें संताल हूल, कोल्ह विद्रोह, बिरसा उलगुलान आदि आदिवासी समूह प्रमुख हैं। इसके बाद अंग्रेज भी आदिवासी क्षेत्रों पर कब्जा नहीं कर सके और उन्हें आदिवासियों की जमीन, पारंपरिक शासन व्यवस्था और संस्कृति की रक्षा के लिए कानून बनाना पड़ा। लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने इससे कोई सबक नहीं लिया। आदिवासियों के मुद्दों को समझने की कोशिश तो दूर, आदिवासी क्षेत्रों को आजाद भारत का हिस्सा बना लिया जबकि आदिवासी अपने क्षेत्रों को ही देश का दर्जा देते रहे हैं; जैसे कि संताल दिशुम, मुंडा दिशुम या हो-लैंड, इत्यादि। आजादी से अब तक आदिवासियों के बारे में बार-बार यही कहा जाता रहा है कि उन्हें देश की मुख्यधारा में लाना है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि देश की बहुसंख्यक आबादी आदिवासियों को जंगली, अनपढ़ और असभ्य व्यक्ति से ज्यादा स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं है और अब उन्हें नक्सली कहा जा रहा है। वहीं तथाकथित मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर आदिवासियों को उनकी भाषा, संस्कृति, परंपरा, पहचान, अस्मिता और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जा रहा हैं और उनकी समतामूलक सभ्यता विनाश की दिशा में है इसलिए वे खुद को बचाने के लिए नक्सलियों की ओर रुख कर रहे हैं क्योंकि उन्हें यह लगने लगा है कि आधुनिक हथियारों से लैश भारतीय सैनिकों से वे तीर-धनुष के बल पर लड़ नहीं पाएंगे।‘
गोपाला ने कहा, ‘ यानी कि एक सीधी-साधी बात बीतते समय के साथ और उलझ गयी !’
राजू भैया ने बीच में उत्तेजित होकर कहा, ’हजारों करोड़ रूपये की कीमती वनोपज संवेदनशील इलाकों से बाहर नहीं निकल पा रही है, जो निकल भी रही है वो आदिवासियों की खून पसीने की मेहनत है जिसे पूंजीपति कौडिय़ों के दाम खरीद कर विदेशों को निर्यात कर रहे हैं। बस्तर के हरा सोना कहे जाने वाले तेन्दूपत्ते के अरबों के खेल में ठेकेदार, नेता, नक्सली और वन अधिकारी मालामाल होते चले गये और एक-एक जोड़ी चप्पल बांट कर इन गरीब आदिवासियों के प्रति सरकार की सहानुभुति की सरकारी कोशिश सरकार के आदिवासियों के प्रति झूठी संवेदना को प्रदर्शित करती रही। कई वर्षो तक बस्तर में लोहे की खदानों पर सिर्फ सरकारी संस्था एनएमडीसी का ही कब्जा था, पर उसके बाद सिर्फ 5-7 सालों में बड़े औद्योगिक घरानों को अनाप शनाप ढंग से 8000 हेक्टेयर में फैली लोहे की खदानें बांट दी गई। वह इलाका जहां किसी सरकारी योजना को पहुंचाने में सरकार सफल न हो सकी, उन्हीं इलाकों में पूंजीपतियों को बिना संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा किये खदानों का आबंटन कर दिया गया। उद्योगों के लिये आदिवासियों की जमीनों का अधिग्रहण संघर्ष की वजह बनती गई। ऐसे हर संघर्ष को नक्सली खुलकर हवा देते रहे और नक्सली आदिवासियों के मसीहा बन गये। इस तरह के सभी इलाकों में धीरे-धीरे नक्सलियों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। और जब सरकार आदिवासियों का भला नहीं कर पा रही है,तो कोई तो है जो उनके साथ है !’
गोपाला ने कहा, ’लेकिन आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास यह बताता है कि इनका संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों – जल, जंगल, जमीन, खनिज और पहाड़ को बचाने के लिए है। चाहे यह संघर्ष आजादी से पहले अंग्रेजों के खिलाफ हो या वर्तमान शासकों के विरुद्ध। वे यह समझ चुके हैं कि प्रकृति में ही उनका अस्तित्व है, इसलिए वे अपने संघर्ष से प्राकृतिक संसाधन और स्व्यं को बचाना चाहते हैं। बिरसा मुंडा ने उलगुलान से यही संदेश दिया था कि ‘‘उलगुलान का अंत नहीं’’। वे यह जानते थे कि आदिवासियों से उनका संसाधन लूटा जाएगा इसलिए उलगुलान ही उसका जवाब है। लेकिन क्या अब ये संघर्ष जिंदा है ? क्या हम लोगो ने इसे एक तरह से अपने लिए इस्तेमाल नहीं किया ?’
दास बाबु ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, ’लेकिन हुआ क्या है, अब तक तो सिर्फ शोषण ही नज़र आ रहा है, कोई तो आदिवासियों का साथ दे और हम वही कर रहे है’
दास बाबु ने गोपाला के कंधे पर अपना हाथ रखा और कहा, ’ पिछले दिनों एक स्वामी रामकृष्ण दास से मेरी मुलाकात हुई है, वो चाहते है कि नक्सली और सरकार दोनों तरफ से खून खराबा ख़त्म हो, एक सुलझाव की बातचीत हो और सब कुछ ठीक हो जाए, हम समाज के मुख्य धारा में शामिल हो और हर तरफ खुशहाली हो। मैं उनकी बातो से सहमत हूँ। मुझे सरकार पर भरोसा नहीं है लेकिन हां, स्वामी जी पर भरोसा है।’
दास बाबू ने पानी पिया और कहा, ‘उन्होंने मुझे कुछ सुझाव दिए है और मैंने भी अपने मन की बात उनसे कही है। मैंने उन्हें समझाया है कि आदिवासियों का जंगल से गहरा संबंध होता है। जंगल के बिना आदिवासियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। किंतु औद्योगीकरण के द्वारा तेजी से आर्थिक विकास करने की सरकारी नीति से आदिवासी खनिज-सम्पदा, वन सम्पदा, जल सम्पदा एवं भूमि सम्पदा से वंचित हो रहे हैं। खनिज सम्पदाओं के विदोहन एवं कल-कारखानों की स्थापना से आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं। जंगलों में बांध बनाए जाने से उनकी जमीन एवं गांव डूबने में आ गए हैं और उन्हें अपने घर, जमीन से वंचित होना पड़ रहा है। आदिवासियों के पुनर्वास, राजेगार एवं कौशल निर्माण के लिए कार्य नहीं किया गया। आदिवासियों में आज भी साक्षरता की दर सबसे कम है। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, खाद्यान्न जैसे मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा गया। ''आदिवासी उपयोजना'' एवं ''निर्धनता-उन्मूलन'' कार्यक्रमों के अंतर्गत राज्य सरकारों के द्वारा भारी राशि व्यय की गई। किंतु आदिवासियों की अशिक्षा के कारण बिचौलिए एवं दलालों के कारण आदिवासियों को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिला, बल्कि इनसे अधिकारी वर्ग एवं सरकारी कर्मचारी वर्ग लाभ उठाते रहे। आदिवासी क्षेत्रों का विकास भी नहीं हुआ। आदिवासी क्षेत्रों में सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत अत्यंत कम है। उनकी खेती वर्षा पर आधारित होती है। कृषि-उत्पादकता अत्यंत कम है। वनोपज ही उनके जीवन का मुख्य आधार बना हुआ है। इन सबके लिए सरकार को आदिवासियों के साथ मिलकर ही काम करना होंगा।‘
इतना कहकर दास बाबू ने सबको विराम करने को कहा और फिर गोपाला और राजू भैया को पास में बिठाकर कहा, ‘तुम दोनों समझदार हो, सबके हित में कुछ अच्छा हो, ऐसा ही फैसला करना।‘ कहकर वो सोने चले गए।
दास बाबू सुबह जल्दी ही उठ जाते थे। आज उनकी रवानगी थी। उन्होंने गोपाला को उठाया और उससे कहा, ’देखो गोपाला। जब मन में किसी भी प्रकार का द्वंध हो तो सब कुछ भगवान पर ही छोड़ देना चाहिए। उसी के आदेश से ये दुनिया चलती है। अब मैं चलता हूँ दलम का अच्छा बुरा सब कुछ तुम पर ही निर्भर है। राजू भैया थोडा गुस्सैल तबियत का आदमी है, तुम थोड़े शांत किस्म के बन्दे हो। सोच समझकर ही दलम के भविष्य के बारे में फैसला करना।’
दास बाबू जंगल के एक रास्ते ही चल पड़े, पुराने आदमी थे, साथ में दो आदमी और लिए और दूसरे दलम के लोगो से मिलने चल पड़े। गोपाला ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उसके मन का द्वंध अब काफी शांत हो चुका था।
दास बाबु के जाने के कुछ दिन बाद ही खबर आई कि रास्ते में आदिवासियों के समूह से उनकी एक झड़प हुई और उसी वक़्त पुलिस फ़ोर्स ने उन पर हमला किया और हमले में दास बाबू और दोनों नक्सली साथी और कई आदिवासी भी मारे गए।
गोपाला इस खबर को सुनने के बाद जैसे टूट सा गया। वो फूट फूट कर रो पड़ा। राजू भैया ने कसम खायी कि वो पुलिस वालो को नहीं छोड़ेंगा। गोपाला ने तब कहा, ’अब और नहीं भैया! अब और नहीं। बस अब हम थक गए है इस मारने और मरने के खेल से। क्या मिला इस खेल से । इतने अच्छे इंसान दास बाबू को मार दिया गया। कल हम उनके लोगो को मारेंगे वो फिर हमारे लोगो को। ये कभी भी ख़त्म नहीं होने वाला है। जाओ किसी से बात करो कि हम समर्पण के लिए तैयार है लेकिन हमारी कुछ शर्ते है। दास बाबू ने जिन स्वामी के बारे में कहा था, उन्ही को भेजने के लिए कहा जाए !’
राजू भैया भी भीतर से टूट सा गया था। दास बाबू ने ही उसे प्रशिक्षण दिया था। अब वो ही नहीं रहे तो क्या करे ! उसने गोपाला से कहा, ‘हां बबुआ, मैं आज ही खबर भिजवाता हूँ। अब हमें शांत ही होना होंगा !’
/// भाग तीन – आज \\\
आज गोपाला ने सुना कि स्वामी जी उससे मिलने आ रहे है। वो थोडा विचलित हुआ। दोपहर तक सारे लोग जुट गए थे। दलम का एक साथी, स्वामी रामकृष्ण दास को लेकर उसके पास पहुंचा। गोपाला ने स्वामी को प्रणाम किया और उन्हे बैठने को कहा। स्वामी जी ने उससे कहा वो तभी ही बैठेंगे जब गोपाला अपने हथियार को खुद से अलग कर ले। गोपाला ने दलम के नेता राजू भैया की ओर देखा। राजू भैया ने हामी में सर हिलाया। उसने स्वामी जी को बैठने को कहा और खुद भी उनके सामने बैठ गया। स्वामी ने उसे और उसने स्वामी जी को बहुत ध्यान से देखा। स्वामी जी की उम्र करीब ७५ साल की होंगी। स्वामी जी के चेहरे पर बड़ी शान्ति थी। गोपाला के उद्विग्न मन को जैसे ठंडी हवा के झोंके मिलने लगे। वो धीरे धीरे शांत होता गया। स्वामी जी ने उसका हाथ पकड़ा और अपने पास बैठा लिया। वो गोपाला के सर पर हाथ फेरने लगे। धीरे धीरे गोपाला को लगा जैसे वो अपनी भाभी या भाई के पास बैठा है। उसकी आँखों में पानी भर आया।
स्वामी जी ने धीरे से उससे कहा, ’अब और क्या बचा है गोपाला। कहाँ के लिए चले थे और कहाँ पहुँच रहे हो। जो बदला लेना चाहते थे वो पूरा हो गया है। अब इस हिंसा को यही रोक दो।’
गोपाला कुछ कहता, इसके पहले दलम के नेता राजू भैया ने कहा, ’आप सिर्फ हमें समझाने आये है, उन्हें क्यों नहीं समझाते जिन्होंने हमरा सर्वनाश किया है हमारी बहु बेटियों और माताओं की इज्जत लूटी है हमारे वनों को लूटा है। हमारे पर्वतो की सम्पदा जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी पूजते आये है उसे लूटा है, हमारा शोषण किया है। हमारे समाज के बेकसूर लोगो को मारा, बेइज्जत किया और अब जब हम अपने सामर्थ्य के साथ खड़े है तो आप हमें समझाने आये है।’
स्वामी जी ने मुस्कराते हुए कहा, ’मैं तुम्हे इसलिए समझाने आया हूँ क्योंकि तुममे थोड़ी बहुत इंसानियत बची हुई है। जो हिंसा तुम कर रहे हो, जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो, उस पर सिर्फ और सिर्फ बेकसूर लोगो का ही खात्मा होता है। तुम लोगो को मुखबिर के शक में मार देते हो, पुलिसवालों को मार देते हो, फौजियों को मार देते हो। भला उन सबका तुम्हारे मिशन से क्या वास्ता। वो भी तुम्हारे जैसे इंसान है, उनके भी परिवार है, छोटे छोटे बच्चे है। तुम सिर्फ एक ह्त्या नहीं करते हो, बल्कि कई सारी हत्याए कर देते हो एक साथ ! भला उनका क्या कसूर, वो सिर्फ अपनी ड्यूटी पूरी करते रहते है। हिंसा किसी भी बात का समाधान नहीं होती।’
गोपाला गुस्से में बोला, ’तो क्या हम लोगो की जान सस्ती है, जब हमारे लोग मरते है, उनकी आबरू लूटी जाती है तो क्या उनकी तरफ से हिंसा नहीं होती है। आप की नज़र में क्या हम ही लोग खराब है।’
स्वामी जी ने कहा, ’नहीं ऐसा नहीं है। मैंने उन्हें भी समझाया है। वो भी समझते है कि हिंसा किसी भी बात का समाधान नहीं होती। मेरी नज़र में तो तुम भी हमारे ही भाई हो और वो भी। नए कानून बन रहे है, अब धरती का दोहन नहीं होंगा। ऊँची और नीची जाती का फासला अब मिट रहा है, सरकार अब तुम सभी के लिए बहुत कुछ करना चाहती है। और अब उन अफसरों और अधिकारियों पर कार्यवाही होंगी, जो तुम सबको लूटते आये है ।‘
दलम के नेता राजू भैया ने कहा, ’हमें किसी पर कोई विश्वास नहीं है।’
स्वामी जी ने कहा, ’मुझ पर विश्वास करो। जिस तरह से तुम अपने ही समाज में हिंसा के कारण मारे गए लोगो के बच्चो को रोते –बिलखते देख कर क्रोध में भर जाते हो, ठीक उसी तरह से मैंने पुलिस और फौजियों के रोते बिलखते परिवार देखे है। हिंसा की नज़र में तुम दोनों एक जैसे ही हो, एक जैसा ही असर दोनों के परिवार पर होता है। हिंसा के रास्ते को रोकना बहुत जरुरी है। इससे किसी का भला नहीं होने वाल
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