स्वप्न मेरे, अब तक वो अधूरे है;
जो मानव के रूप में मैंने देखे है !
मानवता के उन्ही स्वप्नों की आहुति पर
आज विश्व सारा;
एक प्राणरहित खंडहर बन खड़ा है !
आज मानवता एक नए युग-मानव का आह्वान करती है;
क्योंकि,
आदिम-मानव के उन अधूरे स्वप्नों को,
इस नए युग-मानव को ही पूर्ण करना होंगा !
स्वप्न था कि,
एक अकाल मुक्त विश्व हो,
जहाँ न कोई प्यासा रहे और न ही कोई भूखा सोये;
हर मानव को जीने के लिए अन्न और जल मिले !
पर अभिशप्त आदिम तृष्णा ने अर्ध-विश्व को,
भूखा–प्यासा ही रखा है अब तक !
मेरा वो खाद्यान से भरे हुए विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !
स्वप्न था कि,
एक हर भाषा के अक्षरों से संपन्न विश्व हो,
जहाँ हर कोई किताब और कलम को ह्रदय से लगाए;
अक्षरों से मिल रहे ज्ञान पर अधिकार हो हर किसी का !
पर निर्धनता के राक्षस ने कागज़ और कलम के बदले में,
क्षणिक मजदूरी थमा दी मासूमो के हाथो में !
मेरा वो अक्षर-ज्ञान से दीप्तिमान विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !
स्वप्न था कि,
एक स्वछन्द मेघो और स्वतंत्र विचारों से भरा हुआ विश्व हो,
जहाँ मानवता मुक्त पक्षियों की तरह उड़ान भरे;
जहाँ जीवन स्वतंत्रता और खुशियों की सांस ले हर क्षण !
पर युद्ध की विभीषिका ने बारूद से सारा आकाश ढक दिया है,
और निर्दोषों के रक्त से सींचकर, इस भूमि को अपवित्र कर दिया है !
मेरा वो युद्ध-मुक्त और भय-मुक्त विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !
स्वप्न था कि,
इंसानों, पशुओ और वृक्षों से स्पंदित एक सुन्दर विश्व हो,
कि हर किसी को यहाँ जीवन-ऊर्जा की प्राण-छाया मिले;
इस धरा ने हम सभी को जीने लायक कितना कुछ तो दिया है !
पर इंसान हैवान बन गया, पशु मिट गए और वृक्ष ख़त्म हो गए,
और अब हमारा ये एकमात्र भूमण्ड़ल ख़त्म होने की कगार पर है !
मेरा वो प्रकृति के प्रति मातृभाव से भरे विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !
स्वप्न था कि,
सरहदे न रहे; सृष्टि में एक सकल बंधुत्व हर ओर बना रहे,
इस धरती पर जो कि हम सबके लिए है; सिर्फ मानवता ही बसी रहे;
पर, हमने सरहदे बना दी और जमीन को अनचाहे हिस्सों में बाँट दिया !
अपने देश बेगाने से और अपने इंसान पराये से हो गए / कर दिए,
धर्म को अधर्म में बदल दिया और अंत में ईश्वर को भी बाँट दिया !
मेरा वो सर्वव्यापी बंधुत्व वाले विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !
स्वप्न था कि,
हम प्रेम, मित्रता और भाईचारा को बिना शर्त निभाये,
पर हमने प्रेम की ह्त्या की, मित्रता में विश्वासघात किया;
और भ्रातुत्व के भाव को जलाया; और जीने के लिए शर्ते रखी !
इंसानों का घृणित व्यापार किया और स्वंय को लालसा / वासना के दांव पर लगाया,
और आज सम्पूर्ण विश्व प्रेम, मित्रता और भ्रातृभाव से वंचित है !
मेरा वो मानव-मन के आकंठ प्रेम में डूबे विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !
स्वप्न था कि,
सारी पृथ्वी पर बुद्ध की असीम शान्ति की स्थापना हो,
सारी वसुंधरा में कृष्ण के पूर्ण प्रेम का बहाव हो;
सारी भूमि पर ईशा का सदैव क्षमाभाव हो !
हर धर्म, हर भाषा, हर जाती और व्यक्ति का सम्मान हो !
पर अब सिर्फ आदमियत की विध्वंसता बची है और ईश्वर कहीं खो से गए है !
एक अतुलनीय विश्व के जागरण का मेरा वो स्वप्न अब तक अधुरा है !
स्वप्न था कि,
मानव मुक्त हो राग, द्वेष, क्रोध, पाप और वासना के मन-मालिन्य से,
अंहकार, आकांक्षाओ, सांसारिक धारणाओ और असीमित आसक्तियो से;
और भर जाए जीवन के उल्लास से और प्रफुल्लित कर दे अपनी आत्मा को;
बच्चो की मासूमियत, फूलो के सौन्दर्य और वर्षा की तृप्त अनुभूतियो से !
एक नये जीवन का; एक नए युग-मानव का और एक नए विश्व का जन्म हो !
मेरा वो प्राण -स्पंदन से भरे हुए विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !
हां !
देशकाल के अँधेरे अवरोधनो से मुक्त होकर,
हमें एक नए युग-मानव के रूप में बदलकर;
मानवता के इन अधूरे स्वप्नों को पूरा करना ही होंगा !
हां !
वो हम ही होंगे जो एक नए विश्व का निर्माण करेंगे,
जहाँ निश्चिंत ही हम मानवो के सारे अधूरे स्वप्न पूरे होंगे !
हाँ !
एक सुन्दर और प्यारा विश्व होंगा, जो हम सबका होंगा;
जो खाद्यान से भरा हुआ होंगा, हर किसी के लिए !
जो अक्षर-ज्ञान से दीप्तिमान होंगा, हर मानव के लिए !
जो युद्ध-मुक्त और भय-मुक्त होंगा, हर इंसान के लिए !
जो प्रकृति के मातृभाव से भरा होंगा, हर मनुष्य के लिए !
जो सार्वभौमिक, सर्वव्यापी बंधुत्व वाला होंगा, हर व्यक्ति के लिए !
जो मानव-मन के आकंठ प्रेम में डूबा हुआ होंगा; हर किसी के लिए !
और मेरा वो आदिम / प्राचीन स्वप्न,
जिसमे मैं;
एक अतुलनीय, अप्रतिम, उत्कृष्ट, सार्वभौमिक, अद्भुत और,
प्राण-स्पंदन से भरे हुए विश्व का नूतन जागरण देखता हूँ;
वो अवश्य पूरा होंगा !
मैं अपने सारे अधूरे स्वप्न,
इस धरा को और नए युग-मानव को समर्पित करता हूँ !
© कविता : विजय कुमार
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