Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पारिजात के फूल

 

भाग 1 – 1982



वह सर्दियों के दिन थे. मैं अपनी फैक्टरी से नाईट शिफ्ट करके बाहर निकला और पार्किंग से अपनी साइकिल उठाकर घर की ओर चल पड़ा. सुबह के 8:00 बज रहे थे. मैं अपने घर के सामने से गुजरा. मां दरवाजे पर खड़ी थी, मैंने मां को बोला ‘मां नहाने का पानी गरम कर दे और पुड़ी सब्जी बना दे. बहुत भूख लगी है. मैं अभी आता हूँ ‘ मां मुस्कराई, वो जानती थी कि मैं कहां जा रहा हूं

 

मैं थोड़ी दूर और गया. पारिजात का घर आया, पारिजात अपने आँगन के दरवाजे पर खड़ी थी. मैं सायकिल से उतर कर उससे बातें करने लगा. पारिजात ने कहा, ‘ आज आप लेट हो गए ‘ मैंने कहा ‘ आज काम ज्यादा था. नया-नया काम मिला हुआ है ऑपरेटर हूं. एक के बाद एक कोई ना कोई काम दे देता है. पर कोई नहीं तुम्हें देखकर सारी थकान मिट जाती है. ‘ पारिजात मुस्करा कर बोली ‘हां मैं जानती हूं न इसलिए तो मैं यहां खड़ी थी, अच्छा रुको मैं तुम्हारे फूल लेकर आती हूँ. ‘ मैंने कहा ‘सिर्फ इन फूलो के लिए ही तो मैं सर्दियों में नाईट शिफ्ट करता हु, वरना कौन इतनी कड़क सर्दी में काम करें. पर तुम और तुम्हारे पारिजात के फूलों के लिए सब कुछ कबूल है. ‘ वह अपने घर के भीतर गयी और एक कटोरी में फूल लेकर आई. साथ में उसकी माँ भी थी. मैंने उन्हें प्रणाम किया, पारिजात ने वह कटोरी मेरे खाने के डब्बे की थैली के ऊपर रख दी. और धीरे से कहा, ‘ ये फूल मेरे देवता के लिए है, तुम्हारे लिए ! ‘ मैंने मुस्करा कर कहा, ‘हां न, मैं तुम्हारा देवता और तुम मेरी देवी. घर आ जाओ, मिलकर खाना खाते है. ‘ उसने कहा, ‘आती हूँ. ‘ फिर मुड़कर अपनी माँ से कहा, ‘ माँ, आज चाची पूरी सब्जी बना रही है, हरी मुझे बुला रहे है मैं जाऊं. ‘ उसकी माँ ने मुस्कराकर हामी भर दी. पारिजात ने मुझसे कहा ‘तुम जाओ मैं आती हूँ. ‘

 

मैंने अपनी साइकिल उठाई और घर की और वापस चल पड़ा रास्ते में देखा कि कन्हैया अपने घर के आगे खड़े हो कर कबूतरों और मुर्गियों को दाना दे रहा था. मुझे देखा तो कहा ‘ वाह भैया मिल आये ससुराल से, ‘ वो मेरा सबसे अच्छा दोस्त था. मैं ने कहा ‘घर आ जा, माँ पूड़ी सब्जी बना रही है. मिलकर खाते है. पारिजात भी आ रही है. ‘ वो बोला, ‘ चाची के हाथ की सब्जी, अभी आता हूँ, तू जा और तैयार हो जा. ‘

 

मैं घर पहुंचा, और माँ से कहा ‘माँ पारिजात और कन्हैया भी आ रहे है. उनके लिए भी बना ले. ‘ माँ ने कहा, ‘ मैं जानती हूँ रे हरी, तू उन्हें जरूर बुलायेगा, और फिर कन्हैया को तो मेरे हाथों की सब्जी बहुत पसंद है, तेरा गरम पानी रख दिया है, नहा ले. ‘

 

मैं बाथरूम की और चल पड़ा, रास्ते में मेरी बहन छुटकी आ गयी और नटखट स्वर में बोली, ‘ क्यों भैया मिल आये भाभी से ‘मैंने उसके तरफ नकली गुस्से में देखा और कहा ‘चल भाग यहाँ से शैतान‘

 

नहाने के बाद पूजाघर गया, वह पर कटोरी में पारिजात के फूल रखे थे. जरूर छुटकी ने रखे होंगे, मैंने मुस्करा कर सोचा और पूजा किया.

 

मैं सोचने लगा, यहाँ सभी मेरे और पारिजात के प्रेम के बारे में जानते है, मेरे घर में भी और उसके घर में भी. और मोहल्ले वाले भी, कभी किसी ने कोई बात नहीं कही, आज एक साल से ऊपर हो रहा था, सभी ने हमें और हमारे पवित्र प्रेम को स्वीकार कर लिया था.

 

इतने में आवाज़ आई, ‘ क्यों भाई, हमें तो कभी पूड़ी सब्जी के लिए नहीं बुलाते हो ‘ ये पारिजात के भाई शिव की थी, मैंने कहा ‘यार तुम्हारा ही घर है, आ जाया करो, जब भी जी चाहे. ‘
मैंने देखा कि साथ में पारिजात और कन्हैया भी थे.

 

हम सब किचन में पालथी मारकर पंगत में बैठ गए. मैं, छुटकी, पारिजात, शिव और कन्हैया !

 

माँ ने आलू की सब्जी पहले ही बना ली थी और गरमा-गरम पूरियां तल रही थी, सबसे पहले उन्होंने, पारिजात को परोसा, फिर कन्हैया को, फिर छुटकी को, फिर शिव को और अंत में मुझे. बस पूरियां बनती गयी और हम सब खाते गए, कन्हैया सबसे ज्यादा खा गया और फिर शिव से कहा ‘यार शिव, जल्दी से इन दोनों की शादी करवा दो, हम बारात लेकर आना चाहते है, तुम्हारे घर में शादी की पंगत में बैठेंगे. ‘ शिव ने मुस्कराकर कहा, ‘बस एक साल और, पारिजात का MA की पढाई हो जाए, फिर इन दोनों को इस शादी के बंधन में बाँध देते है, ‘ मैंने मुस्कराकर कहा ‘हां तब तक मेरी नौकरी भी पक्की हो जायेंगी. क्यों पारिजात तुम क्या कहती हो. ‘ पारिजात शर्मा गयी थी. उसने कुछ नहीं कहा, बस इतना ही कहा, ‘जैसे भैया कहेंगे! ‘ इतने में छुटकी ने चुटकी ली, ‘मन में तो लड्डू फूट रहे है भाभी के. ‘ पारिजात ने कहा ‘ अरे हां, तुम शाम को ड्यूटी पर जाते हुए घर आ जाना, कल तुम्हारा जन्मदिन है तो माँ बूंदी के लड्डू बना रही है तुम कुछ लेते जाना अपने डब्बे में ‘ कन्हैया ने कहा, ‘भाई हम भी आयेंगे, हमें भी पसंद है बूंदी के लड्डू. ‘ पारिजात ने कहा, ‘हां न तो आ जाना, कौन मना कर रहा है, तुम्हारा भोग तो हरी से भी पहले लगता है, ‘ हम सब हंस पड़े. यही हमारी आत्मीयता थी, यही प्यार था. यही स्नेह था. यही मेरी और पारिजात की जोड़ी थी !

 

सब अपने-अपने घर चले गए, मैं बिस्तर पर लेट गया और पारिजात के बारे में सोचने लगा

 

 

भाग २ – 1981

 

मैं विदिशा शहर से था. छोटा सा अलमस्त शहर था. बेतवा नदी थी. कुछ और भी ऐतिहासिक स्थल थे. मैं और पारिजात एक ही मोहल्ले में रहते थे, मैंने उसे बचपन से ही देखा था. वो एक सीधी-साधी लड़की थी, जो हमेशा ही चोटी डाली रहती थी. जब भी एक दुसरे को देखते तो हम मुस्करा देते थे. वो अकसर छुटकी के साथ घर आया करती थी. तब कुछ इधर उधर की बाते कर लेते थे. बस इतना ही था. मैं उसे पसंद करता था कि वो कितनी अच्छी लड़की थी, और वो भी मुझे पसंद करती थी कि मैं कितना अच्छा लड़का था, ये बात मुझे छुटकी ने बताया था तो मैं जोर जोर से हंस पड़ा था. उन दिनों, इन सब बातों के लिए कहाँ जगह थी, बस एक अदद नौकरी की तलाश थी. मैंने MSC किया हुआ था. छुटकी ने BA में एडमिशन लिया हुआ था. पारिजात ने MA हिंदी साहित्य में एडमिशन लिया हुआ था. कन्हैया ने B.COM के बाद न पढ़ने की कसम खायी हुई थी. उसके पिताजी की किराना की दुकान थी, उसी पर वो अपने पिता जी का हाथ बंटा लेता था.

 

शहर में ऑटो पार्ट्स की एक ancilary यूनिट खूली हुई थी. मोहल्ले के सारे लड़के वही लग गए थे. मैंने भी वहाँ इंटरव्यू दिया और मेरा चुनाव हुआ ऑपरेटर की पोस्ट पर, वो भी टेम्पररी एक साल के लिए. मेरे घर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी, मैं अकेला ही कमाने वाला था. पिताजी नहीं रहे थे बस ये खुद का घर था, जो कि रहने के लिए आसरा था. मैंने वो नौकरी ज्वाइन कर ली. घर में आकर ये खुशखबरी सुनाई तो सभी खुश तो हुए, लेकिन पढाई के मनमाफिक नौकरी न मिलने पर दुःखी भी हुए, मैंने समझाया कि आजकल कहाँ ये सब मिलता है, जो मिले उसे ले लेना चाहिए और फिर मोहल्ले के बाकी लड़के भी तो है सभी कर रहे है. पारिजात को ये बात पता चली तो वो भी खुश हुई, पता नहीं पर उसे मेरी ख़ुशी में शामिल देखकर मुझे और ज्यादा ख़ुशी हुई. रात को मैंने कन्हैया को बियर पिलाकर ख़ुशी मनाई. मैं तो इन सब बातों से दूर था. कोई शौक नहीं थे, हां कविता जरुर लिख लेता था.

 

शीत ऋतु के शुरुवात में एक दिन पारिजात घर आई, और मुझसे कहा कि उसके कॉलेज में कवि सम्मेलन हो रहा है और उसने मेरा नाम भी लिखवा दिया है. मैंने आश्चर्य से पुछा तुम्हें कैसे पता कि मैं कविता लिखता हूँ, उसने हँसते हुए कहा छुटकी है न. तुम्हारे बारे में सब बता देती है. मैं मुस्करा दिया, और कहा कि मैं जरुर आऊंगा.

 

खैर,कवि सम्मेलन वाले दिन मैं, छुटकी और कन्हैया, पारिजात के कॉलेज पहुंचे. वहां पर जो कवि आये हुए थे, वो कविता के नाम पर शोर ज्यादा मचा रहे थे. मैंने कहा, ‘यार कन्हैया ये कहाँ फंस गया मैं. यहाँ तो मिसफिट है या तो वो या तो मैं,’ कन्हैया ने कहा ‘यार, ये सभी दूध उबालो और दही जमा लो वाली कविता युग के लोग है, तेरी कविता फ्रेशनेस लिए हुए है, तू चिंता मत कर. तुम हिट हो यहाँ मेरे यार.’ खैर जब मेरा नाम पारिजात ने पुकारा. वही इस कवि मंच का संचालन कर रही थी. मैं गया, मंच को प्रणाम किया. और बड़े हिचकिचाते हुए पहली कविता पढ़ी.

 

‘जीवन’
हमें लिखना होंगा जीवन कि असफलताओं के बारे में
ताकि फिर उड़ सके हम इतिहास के नभ में
हमें फूंकना होंगा टूटे हुए सपनो में नयी उर्जा
ताकि मृत जीवन कि अभिव्यक्ति को दे सके
कुछ और नयी साँसे !

 

मैंने चुप होकर अपनी डायरी से नज़र उठायी, सारा हाल शांत हो गया था. पहली ताली कन्हैया ने बजाई, फिर तो बहुत सी तालियाँ बजी, जिसमें पारिजात की प्रशंसा भी थी.
मैंने दूसरी कविता पढ़ी
‘सोचता हूँ......’
सोचता हूँ
कि
कविता में शब्दों
कि जगह
तुम्हें भर दूँ ;
अपने मन के भावों के संग
फिर मैं हो जाऊँगा
पूर्ण !

 

इस बार पहली ताली पारिजात ने बजायी. हाल में फिर तालियाँ और सीटियाँ गूंजी
लोगो ने चिल्लाकर कहा ‘और पढो भाई, तुम तो गजब हो’
मैंने तीसरी कविता पढ़ी
‘नज़्म’

 

मुझ से तुझ तक एक पुलिया है
शब्दों का,
नज्मो का,
किस्सों का,
और
आंसुओ का.......
......और हां; बीच में बहता एक जलता दरिया है इस दुनिया का !!!!

 

इस बार कन्हैया ने जोरो से ताली बजायी, हाल में शान्ति थी. फिर बहुत सी तालियाँ बजी, मैंने धीरे से पारिजात कि और देखा, वो मुझे गीली आँखों से देख रही थी.
मैंने चौथी कविता पढ़ी
‘अंतिम पहर’

 

देखो आज आकाश कितना संक्षिप्त है,
मेरी सम्पूर्ण सीमायें छु रही है आज इसे;
जिंदगी को सोचता हूँ, मैं नई परिभाषा दूँ.
इसलिए क्षितिज को ढूँढ रही है मेरी नज़र !!!

 

मैं चाह रहा हूँ अपने बंधंनो को तोड़ना,
ताकि मैं उड़ पाऊं,सिमट्ते हुए आकाश में;
देखूंगा मैं फिर जीवन को नये मायनों में.
क्योंकि थक चुका है मेरे जीवन का हर पहर !!!

 

वह क्षितिज कहाँ है,जहाँ मैं विश्राम कर सकूं;
उन मेरे पलो को ; मैं कैद कर सकूं,
जो मेरे जीवन कि अमूल्य निधि कहलायेंगी.
जब आकाश सिमटेगा अपनी सम्पूर्णता से मेरे भीतर. !!!

 

पारिजात के फूलों के साथ तुम भी आना प्रिये,
प्रेम की अभिव्यक्ति को नई परिभाषा देना तुम;
क्षितिज की परिभाषा को नया अर्थ दूँगा मैं.
रात के सन्नाटे को मैं थाम लूंगा, न होंगा फिर सहर !!!

 

पता है तुम्हे,वह मेरे जीवन का अन्तिम पहर होंगा,
इसलिए तुम भिगोते रहना,मुझे अपने आप मे;
खुशबु पारिजात कि,हम सम्पूर्ण पृथ्वी को देंगे.
थामे रखना,प्रिये मुझे,जब तक न बीते अन्तिम पहर !!!

 

प्रेम,जीवन,मृत्यु के मिलन का होंगा वह क्षण,
अन्तिम पहर मे कर लेंगे हम दोनों समर्पण ;
मैं तुम मे समा जाऊंगा, तुम मुझमे.
जीवन संध्या कि पावन बेला मे बीतेंगा हमारा अन्तिम पहर !!!

 

पढ़कर मैंने पारिजात को देखा. पारिजात स्तब्ध थी, सारा हाल शांत था, फिर कही से सीटी बजी, कन्हैया की ताली बजी और सारे हाल के लोगो ने खड़े होकर तालियाँ बजी.
पारिजात अब भी किसी सपने में थी शायद.
मैंने कहा ‘अब आखिरी कविता, ताकि दूसरे कवि भाइयों को भी मौका मिले’
‘क्षितिझ’
मिलना मुझे तुम उस क्षितिझ पर
जहाँ सूरज डूब रहा हो लाल रंग में
जहाँ नीली नदी बह रही हो चुपचाप
और मैं आऊँ पारिजात के फूलों के साथ
और तुम पहने रहना एक सफेद साड़ी
जो रात को सुबह बना दे इस ज़िन्दगी भर के लिए
मैं आऊंगा जरूर ।
तुम बस बता दो वो क्षितिझ है कहाँ प्रिय ।

 

इतना कहकर मैंने मंच को प्रणाम किया और नीचे उतर गया.

 

कन्हैया ने मुझे गले से लगा लिया, छुटकी खुशी से फुला नहीं समां रही थी, सारा हाल सीटियाँ बजा रहा था. पारिजात धीरे धीरे मेरे पास आई, मुझे देखा, उसकी आँखें गीली थी. फिर वो मंच पर चली गयी.

 

हम प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद घर साथ में ही वापस आये, सभी बाते कर रहे थे, मैं और पारिजात चुप थे. मैंने छुटकी को घर छोड़ा, फिर कन्हैया को और फिर पारिजात के साथ उसके घर गया, उसकी माँ घर के दरवाजे पर शिव के साथ बैठी हुई थी, वो सब पारिजात का ही इंतजार कर रहे थे, मैंने उन्हें नमस्ते की और पारिजात को धीरे से बाय कहा. पारिजात ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर कहा कल काम पर मत जाना, मैं आऊंगी मिलने. मैंने कुछ नहीं कहा. उसका भाई और उसकी माँ, पारिजात के हाथ को मेरे हाथ पर रखा हुआ देख कर असहज हो रहे थे. मैंने धीरे से हाथ छुड़ाया और कहा, ठीक है, मैं घर पर रहूँगा. मैं वापस चल पड़ा. उस रात मैं ठीक से सो न सका. और जब सोया तो कच्ची नींद के पक्के सपनों में पारिजात और पारिजात के फूल दिखे.

 

दूसरे दिन पारिजात अपनी माँ के साथ आई, मैंने छुट्टी की अर्जी मोहल्ले के ही एक लड़के के हाथों में भिजवा दी थी. माँ ने मेरी पसंदीदा इडली संभार बनायीं थी, मैं वही खा रहा था जब ये लोग आये. मैंने इन्हें भी बिठाया. पारिजात कि माँ कल की असहजता को मन में रखी हुई थी वो मेरी माँ से इधर उधर की बाते करने लगी, छुटकी भी कॉलेज नहीं गयी थी. हम सब मेरी कमरे में आ गए, जहाँ मेरा संसार फैला हुआ था. छुटकी पारिजात के लिए भी इडली लेकर आई. छुटकी को माँ ने किसी काम से कन्हैया की दुकान पर भेजा कुछ सामान लाने के लिए.

 

उसके जाते ही पारिजात ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर कहा ‘बताओ तो क्या वो कवितायें मेरे लिए थी ?’ मैंने कठिन स्वर में कहा, ‘नहीं भी और हां भी, पहले उन कविताओं में निशिगंधा के फूल थे, अचानक कल कालेज में तुम्हें देखते हुए मैंने उन्हें पारिजात के फूल पढ़ दिया. पता नहीं ये कैसे हुआ,’ पारिजात ने कहा, ‘मुझे पता है कैसे हुआ.’ मैंने कुछ नहीं कहा बस उसे देखते रहा, और वो मुझे. मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा दिया. पसंद अब चाहत में बदल रही थी. अचानक कमरे में उसकी माँ आई और हमें फिर से हाथ पर हाथ रखे देखा. और वो वापस चली गयी, वो समझ रही थी कि क्या हो रहा है. फिर उसने पारिजात को आवाज दी और कहा कि चलो घर चलते है. मेरी माँ ने कहा अरी दीदी रहने देना, दोपहर का खाना खिलाकर भेज देती हूँ. तुम भी रुक जाओ, तुम भी खाकर चले जाना. शिव को बुला लेना. पारिजात कि माँ ने कुछ नहीं कहा. शिव अकेला बेटा था, एक फार्मा कंपनी में मेडिकल representative था. उन लोगों की हैसियत हमसे अच्छी थी. पारिजात के पिता भी नहीं रहे थे. लेकिन उन्होंने बड़ी संपत्ति छोड़ रखी थी. मैं ये सब सोच ही रहा था कि पारिजात ने कहा, ‘चलो हरी, कुछ पौधे खरीद लाते है, माँ कुछ रुपये देना. हम पिछले मोहल्ले के गार्डन नर्सरी में जा रहे है.’ उसने माँ से रूपये लिया. मेरी माँ ने भी उसे रोककर कुछ रुपये दिए और कहा कि बेटी, मेरे घर के लिए भी कुछ पौधे ले आना. पारिजात ने मुसकराहट के साथ कहा, जी माँ जी.

 

हम नर्सरी गए, उसने वहां पर पारिजात के दो पौधे खरीदे, मुझे सब कुछ अच्छा लग रहा था आज उसने दो चोटी कि जगह बालो को जूडा बनाकर रखा था. वो अचानक खुल गया, उसके लम्बे बाल उसके चेहरे पर बिखर गए, वो फिर से उन्हें बाँधने लगी, मैंने कहा ‘रहने दो, अच्छे लगते है खुले बाल तुम्हारे चेहरे पर. तुम तो बड़ी सुन्दर दिख रही हो आज.’ वो शर्मा सी गयी.

 

उसने कहा चलो जी, अब ये पौधे लगा लेते है, एक तुम्हारे घर और एक मेरे घर.

 

हम चल पड़े मेरे घर में छुटकी ने मदद की , मेरी और उसकी माँ दोनों देखती रही, फिर हम उसके घर चले, रास्ते में कन्हैया मिला, उसे भी ले लिया, पारिजात के घर में पौधे लगाते हुए हम मुस्करा रहे थे. कन्हैया से रहा नहीं गया, उसने कहा ‘क्यों रे छुटकी, कल की कविता का असर दिख रहा है न, सब कुछ बदला बदला सा है,’ छुटकी ने हँसते हुआ कहा, ‘मेरे मन की बात कह दी कन्हैया भैया तुमने तो.’ हम सब हंसने लगे, पारिजात लगातार शर्मा रही थी. हम सब फिर मेरे घर की और चल पड़े, रास्ते में शिव मिला, उसे भी ले लिए.
घर में फिर सबने खाना खाया. और फिर अपने-अपने घर चले गए.

 

रात को माँ ने कहा, पारिजात की माँ तुम दोनों को लेकर बहुत असहज है, मैंने उसे समझाया है कि अपने आँखों के सामने पले और बड़े हुए बच्चे है, दोनों में कोई खोट नहीं है, इसलिए जो हो रहा है वो ईश्वर की मर्जी ही समझो आगे देखते है. मैंने कुछ नहीं कहा. बस शांत सुनते रहा और पारिजात के खुले बालो के बारे में सोचते रहा.
दुसरे दिन, मैं फैक्ट्री जाते हुए पारिजात के घर की तरफ से गया, वो नहीं दिखी, शाम को भी उसके घर की तरफ से ही आया. वो नहीं दिखाई, मुझे कुछ बैचेनी हुई. मैंने छुटकी से पुछा, आज पारिजात नहीं दिखाई दी. उसने कहा वो कालेज भी नहीं आई थी. मैं कल उसके घर जाकर देखती हूँ. मैंने अनमने मन से खाना खाया और सोने कि कोशिश करने लगा. मुझे कुछ हो गया था. शायद प्रेम... !

 

दुसरे दिन शाम को जब लौटा तो छुटकी ने बताया कि पारिजात को तेज बुखार आया हुआ है, मैं नहाकर छुटकी और कन्हैया को लेकर उसके घर पहुंचा. वो घर में अपने माँ की गोद में सर रखकर लेटी हुई थी. हमें देखकर उठ कर बैठ गयी. वही सोफे पर शिव बैठकर चाय पी रहा था. हमें देखकर हमारे लिए भी ले आया. मैंने कहा, घर में एक आधा डॉक्टर है, बीमार कैसे हो गयी, क्या हुआ, शिव ने कहा, टेस्ट करवाया है, मलेरिया हो गया है, दवाई दी है ठीक हो जायेंगा. कन्हैया सुनकर गुनगुनाने लगा, ‘मलेरिया हुआ या लवेरिया हुआ, पता करना पड़ेंगा.’ सब हंस पड़े. पारिजात ने गुस्से में उसे घूँसा दिखाया.

 

मैं बाहर आया तो देखा, उसका पारिजात का पौधे लहलहा रहा था, कुछ कलियाँ भी खिली हुई थी. मैंने कहा, ये पौधा भी लग गया, मेरे घर भी लग गया, लेकिन अभी कलियाँ नहीं आई, तुम्हारे घर पर जल्दी ग्रोथ हुआ है, पारिजात हँसते हुए बोली ‘अरे तो घर किसका है, पारिजात का. इधर ही सब कुछ जल्दी होंगा. तुम तो बुद्धू हो, समझते ही नहीं हो.’ सभी मुस्करा उठे.

 

करीब एक हफ्ते वो बीमार रही, मैं रोज घर आने के बाद उसे देखने जाते रहा. उसकी माँ भी अब खुल सी गयी थी, वो असहजता कम हो गयी थी.

 

अब सब कुछ अच्छा लगता था. मैं अब बात बात पर मुस्कराता था. कही खो जाता था, बादल और पेड़ पौधे अब अच्छे लगने लगे थे. ज़िन्दगी की नीरसता चली गयी थी. काम में मन नहीं लगता था, पर अपने काम को अच्छे से करता था, मुझे परमानेंट एम्प्लोयी बनना था. जीवन ठीक ही चल रहा था.

 

करीब दो दिन बाद पारिजात घर पर आई, उसके हाथ में एक शीशे की कटोरी थी जिसमे बहुत से पारिजात के फूल भरे हुए थे. मेरे कमरे में सीधे आई और मेरे हाथो को अपने हाथो में लेकर सारे फूल दे दिए. कहने लगी, ‘ मेरे घर के पारिजात के फूल है, तुम्हारे लिए है, स्वीकार करो ‘ मैंने हिचकिचाकर कहा कि ये फूल तो भगवान को चढ़ते है, उसने मुस्कराकर कहा ‘ मेरे भगवान् तो अब तुम ही हो, मैंने माँ से कह दिया है कि तुम ही अब मेरी ज़िन्दगी हो. ‘ मैंने उसके हाथो को थाम लिया.

 

अब वो हर दिन ही घर आने लगी. मोहल्ले में भी सभी को पता चल ही गया कि हम दोनों में प्रेम है और वो भी बहुत गहरा और सच्चा !

 

जीवन की अपनी गति थी और प्रेम की भी अपनी !

 

फिर वो शाम को कविता को समझने के लिए आने लगी. कभी महादेवी वर्मा, कभी सुभद्रा कुमारी चौहान, कभी दिनकर, कभी प्रसाद, कभी गुप्त, कभी नागार्जुन. बस कविता, वो, मैं और प्रेम.

 

फिर एक दिन वो मेरे पास आकर कहने लगी कि कालिदास का कुमारसंभव पढ़ा दूँ. मैं पढ़ाने लगा, एक जगह आ कर मन भटकने लगा, मैंने उसका हाथ थाम लिया और उसे अपनी तरफ खींच लिया और धीरे से उसे आलिंगन में ले लिया . उसने कहा ‘मुझे छोड़कर नहीं जाना वरना मैं जी नहीं पाउंगी.’ मैंने कहा, ‘पागल तू भी मुझे छोड़ना नहीं, वरना मैं तो बस ख़त्म हो जाऊँगा.’ हम बहुत देर तक ऐसे ही अलिंगन में रहे, मैंने धीरे से उसके माथे पर हलके से छुआ ! वो शर्मा कर चली गयी, लेकिन मुझे बहुत ख़ुशी थी. अब बस मैं उसके बारे में ही सोचता था !

 

हमें जब भी समय मिलता हम शहर के मंदिरों में घूम आते, कभी किले की और चले जाते, कभी उदयगिरी, कभी विजय मंदिर, कभी गिरिश्रेणी, कभी चरणतीर्थ, कभी राम मंदिर, कभी शिव मंदिर, कभी हनुमान मंदिर.... पारिजात से प्रेम हो जाने के बाद ही पता चला कि मेरे शहर में कितनी सारी जगह है, कितने मंदिर है, हमें तो बस भगवान जी पर ही भरोसा था. हम अकसर नदी में पैर डालकर घंटों बैठे रहते, जीवन प्रेम में कितना खूबसूरत हो जाता है न.

 

एक दिन हम नदी के किनारे संध्या की आरती देख रहे थे. पारिजात ने आरती होने के बाद मुझसे पुछा, तुम्हें पारिजात कि कहानी पता है ? ‘ मैंने कहा कि हां न पता है पारिजात नाम के इस वृक्ष के फूलो को देव मुनि नारद ने श्री कृष्ण की पत्नी सत्यभामा को दिया था। इन अदभूत फूलों को पाकर सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण से जिद कर बैठी कि परिजात वृक्ष को स्वर्ग से लाकर उनकि वाटिका में रोपित किया जाए। सत्यभामा की जिद पूरी करने के लिए जब श्री कृष्ण ने परिजात वृक्ष लाने के लिए नारद मुनि को स्वर्ग लोक भेजा तो इन्द्र ने श्री कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और पारिजात देने से मना कर दिया। जिस पर भगवान श्री कृष्ण ने गरूड पर सवार होकर स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया और परिजात प्राप्त कर लिया। श्री कृष्ण ने यह पारिजात लाकर सत्यभामा कि वाटिका में रोपित कर दिया। ‘

 

पारिजात ने कहा, ‘ इसके अलावा भी एक और कहानी है ‘पारिजात नाम की एक राजकुमारी हुआ करती थी,जिसे भगवान सूर्य से प्यार हो गया था, लेकिन अथक प्रयास करने पर भी भगवान सूर्य ने पारिजात के प्यार कों स्वीकार नहीं किया, जिससे खिन्न होकर राजकुमारी पारिजात ने आत्म हत्या कर ली थी। जिस स्थान पर पारिजात की समाधि बनी वहीं से पारिजात नामक वृक्ष ने जन्म लिया.’ इसी कारण पारिजात वृक्ष को रात में देखने से ऐसा लगता है जैसे वह रो रहा हो, लेकिन सूर्य उदय के साथ ही पारिजात की टहनियां और पत्ते सूर्य को आगोश में लेने को आतुर दिखाई पडते है। ‘

 

ये कहानी सुनकर मैं शांत हो गया था. पारिजात ने मेरे हाथ अपने हाथ में लेकर कहा कि मुझे कभी मत छोड़ना, मैं मर जाऊंगी, कह कर वो रोने लगी, उसके आंसू मेरे हाथ में गिरने लगे, मैंने तुरंत उसके आंसू पोंछे और कहा, ऐसा कभी नहीं होगा. भगवान जी ने हमें मिलाया है, वही भली करेंगे.

 

जीवन की अपनी गति होती है और प्रेम की भी. प्रेम की विशालता कभी कभी जीवन को छोटा कर देती है.

 

भाग 3 – 1982

 

हम सब पारिजात के घर में बैठकर लड्डू खा रहे थे. सबसे ज्यादा कन्हैया खा रहा था. पारिजात ने उससे कहा भी कि कल के लिए रहने तो दो, हरी का जन्मदिन मनाएंगे. लेकिन वो कब मानता था. उसने कहा, मैं कुछ नहीं जानता, बस मुझे खाने दो. वो मोहल्ले का सबसे प्यारा लड़का था, सभी की मदद करता था. उसके पिता जी को मोहल्ले में लालाजी कहते थे, उनकी किराना की दुकान थी. कन्हैया और पारिजात दोनों ही कायस्थ थे. जबकि मैं जुलाहा था ! लेकिन हम सब के बीच में ये जात-पात की बाते कभी भी नहीं उठती थी. हम सभी मनुष्यता, प्रेम और दोस्ती से बंधे हुए थे. और उन दिनों मोहल्लों में ये बाते होती भी थी और नहीं भी होती थी.

 

पारिजात कि माँ ने पुछा, हरी बेटा, तुम्हारी माँ कह रही थी, कि छुटकी के लिए जबलपुर से रिश्ता आया है, ‘ मैंने कहा, ‘ हां चाची, लड़का अच्छा है. जबलपुर में MPEB में क्लर्क की जॉब में है. घर परिवार सब ठीक है, खुद का ही घर है, घर में एक बहन बस है. उनके माता पिता भी सरल स्वभाव के है. मुझे सब कुछ पसंद है, एक बार वो लोग घर आये थे, पारिजात ने भी देखा है. छुटकी और लड़का दोनों ने एक दूसरे को पसंद किया है, बात लगभग तय ही है, बस अगले साल इसकी पढाई होते ही आनंद बाबु के साथ इसका ब्याह रचा दिया जायेगा.

ये सुनते ही छुटकी जो लड्डू खा रही थी, शर्मा गयी थी. कन्हैया ने कहा और फिर छुटकी के ब्याह के बाद तुम्हारा और पारिजात का ब्याह. ठीक. मैंने कहा बस मेरी जॉब परमानेंट हो जाए. सब कुछ ठीक ही होंगा.
पारिजात की माँ ने कहा कि मैंने तुम्हारी माँ से कह दिया है कि अगले बरस ही ब्याह हो जाना चाहिए हरी और पारिजात का और अब अब हम नहीं रुकेंगे. हम सब हंस दिए.

मैं अपने फैक्ट्री चल पड़ा. कन्हैया अपने घर. छुटकी और पारिजात दोनों गप्पे मारने लग गए. बस यही छोटा सा जीवन था मोहल्ले का !

और हमारा जीवन, वो तो बस प्रभु जी के हाथो में ही था !

 

 

भाग – ४ – 1983

 

 

छुटकी की शादी हो गयी. कन्हैया के पिताजी से कर्जा लेना पढ़ा. घर में तो पैसे थे ही नहीं. लालाजी ने बहुत कम ब्याज पर पैसे दिए, उन्हें हमारी दोस्ती के बारे में अच्छे से पता था, नहीं तो कन्हैया जरुर हंगामा करता. खैर अच्छे से शादी हो गयी, मोहल्ले वालो का अच्छा सहयोग था, इन दिनों यही सब बाते तो दिल को लुभाती थी. पंगत में बैठ कर खाना खाने का मज़ा ही कुछ और था. और भी बाते, रीति रिवाज, सब कुछ अच्छे से निपट गया !
छुटकी की विदाई में लगभग सारा मोहल्ला रोया. सब कुछ अच्छे से निपट गया

अब मैं अपनी शादी के सपने देखने लगा, पारिजात के भी कुछ ऐसे ही सपने महक रहे थे.

लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.

करीब एक महीने बाद हमारी नौकरी पर गाज गिरी. हमारी फैक्टरी का एक बड़ा आर्डर कैंसिल हो गया. फैक्टरी अनिश्चित काल के लिए बंद हो गयी. जितने भी लोगों की नौकरी गयी. सबके घरों में भुखमरी की नौबत आ गयी. मेरे घर के हालात भी अच्छे नहीं थे. कन्हैया ने कुछ रुपये उधार दिए, लेकिन वो कितने दिन चलते. मैं जोरों से नौकरी ढूंढ रहा था. लेकिन नहीं मिल पा रही थी.

पारिजात से मिलना तो था ही, वो भी मेरी जॉब के लिए परेशान रहती थी. उसकी माँ अलग परेशान कि अब शादी कब होंगी. मैंने कह दिया, बिना नौकरी के मैं शादी नहीं करूँगा.

वहाँ जबलपुर में भी आनंद बाबू कोशिश में थे, लेकिन कहीं पर कोई बात नहीं बन पा रही थी. फिर मोहल्लो के लडको ने सोचा कि किसी और शहर में कोशिश की जाए, किसी ने पूना में कोशिश की, वहाँ बहुत सारे ऑटो पार्ट्स की यूनिट थी, एक फैक्टरी में बात बन गयी, हमारे मोहल्ले और पिछले मोहल्ले की लडको की टोली वहाँ जाने के लिए तैयार हुई.

मेरी माँ बहुत रोई, लेकिन मैंने समझाया कि इसके सिवा कोई चारा नहीं है, जाना ही होगा और कोई रास्ता नहीं है. मैंने कहा कि अगर नौकरी पक्की हो जाए तो आकर शादी कर लेता हूँ और माँ और पारिजात को ले जाता हूँ.
मेरे जाने कि खबर से पारिजात खुश नहीं थी, लेकिन वो समझदार थी. उसने अपने मन को कठोर कर लिया था. रोज हम दोनों मिलते थे. मैं चिंतित था वर्तमान की घटनाओं को लेकर और भविष्य कि अनिश्चितता को लेकर. वो मुझे समझाती थी लेकिन मेरी चिंता मिट नहीं रही थी. लग रहा था कि कुछ ठीक नहीं होने वाला है.

पारिजात रोज मेरे लिए फूल लेकर आती थी. मुझे ही अर्पण करती थी, और कहती थी, तुम ही मेरे सब कुछ हो, सब कुछ ठीक हो जायेगा. मेरी तपस्या व्यर्थ नहीं जायेंगी. वो जब तक मेरे पास रहती थी. सब कुछ अच्छा लगता था लेकिन जैसे ही वो जाती थी, मैं बिखर जाता था.

कन्हैया जब तब कुछ रुपये लाकर मुझे दे जाता था, वो भी खुश नहीं था मेरे जाने की खबर से, लेकिन उसने कहा कि जब तक यहाँ या आसपास कोई जॉब नहीं मिले, तेरा पूना जाना ही ठीक रहेगा. मैंने उससे कहा था कि वो माँ और पारिजात का खयाल रखेगा. उसने वचन दिया था मुझे !

जाने वाले दिन के पहली शाम को पारिजात मुझे लेकर नदी के किनारे आई, खूब फूटकर रोई. मेरी आँखें भी भीगी थी. लेकिन अब जब फैसला कर ही लिया था तो जाना ही था. पारिजात मेरा हाथ पकड़कर बहुत देर तक बैठी रही. डूबता हुए सूरज को देखती रही, और अपने आंसुओं को पोंछती थी. मैं उसे अपनी कविताओं की डायरी दे दी, और कहा कि मेरी अनुपस्थिति में ये डायरी ही उसका सहारा है. उसने डायरी को और मुझे अपने दिल से लगा लिया.

उस रात को वो और कन्हैया मेरे घर पर ही रुके रहे, हम सारी रात जागे, खूब बाते की . माँ की तबीयत ख़राब हो रही थी, मेरे जाने के ख्याल ने उन की तबीयत पर भी असर किया था.

दूसरे दिन झेलम एक्सप्रेस से जाना था, जाने के पहले कन्हैया के पिताजी से मिला उनसे कहा कि माँ का ध्यान रखे. उनका पैसा जल्दी ही लौटा दूंगा. फिर पारिजात की माँ और शिव से मिला, उन्हें भी माँ का ख़याल रखने को कहा. पारिजात की माँ की असहजता फिर से लौट आयी थी.

शाम को स्टेशन पर माँ, कन्हैया, पारिजात और शिव मुझे छोड़ने आये. मेरे साथ करीब 8 लडको का ग्रुप था जो पूना जा रहा था. हम सब एक ही डब्बे में थे. सबके परिवार वाले छोड़ने आए थे. पहली बार सभी अपने शहर को छोड़कर किसी दूसरे शहर में जा रहे थे.

मेरी आँखें भीगी थी, इन सब को फिर कब देखूंगा इसी ख्याल से, मैंने माँ को अपना ख्याल रखने को कहा और पारिजात और कन्हैया को दिल भर कर देखा. पारिजात बहुत खामोश थी. उसकी आँखों में अजीब सा खालीपन था. शायद सारी रात जगी हुई थी और शायद खूब रोई भी थी. मैंने उससे कहा, मैं जल्दी ही आता हूँ, सब ठीक हो जायेगा

ट्रेन की सीटी बजी, ट्रेन के चलने का सिग्नल हुआ, ट्रेन धीरे धीरे प्लेटफार्म से खिसकने लगी, हम अपने डब्बे में चढ़ने लगे. मैंने सभी को जी भर कर देखा. पारिजात की अब तक की रुकी हुई रुलाई फूट पड़ी. मेरी भी आँखों से आंसू बहने लगे. मैं डब्बे के भीतर आ गया.

अपनी सीट पर बैठा, पता नहीं कब तक रोता रहा, काफी देर बाद, ग्रुप के लडको ने बैठ कर बाते की, कि पूना में कैसे रहेंगे, इत्यादि. मैं पता नहीं किस सोच में भटकते रहा. न खाना खाया गया, न नींद आई, पारिजात का चेहरा रात भर हवा में तैरता रहा.

मन में कुछ अटक सा गया था. लग रहा था कि अब कुछ ठीक न होगा !

 

 

भाग – 5 – 1983

 

 

पूना शहर बहुत खूबसूरत था , विदिशा से बहुत बेहतर था . मुझे तो इसकी सांस्कृतिक आभा खूब अच्छी लगी. खैर टाटा मोटर्स के पास के एक ancilary यूनिट में हमें काम मिला था, हम सब ने वही पर एक दो कमरों का एक घर किराये पर ले लिए. ज़िन्दगी की नई गाथा शुरू हो गयी थी, हमारे ग्रुप में एक अनिल नाम का लड़का था जो कि थोड़ा लीडर टाइप का बंदा था. वही हमारा सुपरवाइजर बना, उसी का कहा सब मानते थे. मुझे वो ज्यादा पसंद नहीं था, लेकिन एक तो वो डिप्लोमा इंजीनियर था, दूसरा उसके काम का अनुभव भी ज्यादा था, और सबसे बड़ी बात उसे आगे बढकर अपनी बात करने आती थी. थोड़ा लड़ाकू भी था. काम के पहले महीने में ही वहां के वर्क्स मैनेजर से उसकी लड़ाई हो गयी. पर्सनल मैनेजर ने आकर हम को समझाया कि, ठीक ठाक रहना है, अभी टेम्पररी जॉब है. नहीं तो निकाल दिए जाओंगे.

अनिल ने हमें कहा कि 6 महीने बीतने दो, फिर मैं इन सबको ठीक करता हु. मुझे आसार कुछ ठीक नहीं लग रहे थे. पर मुझे इस नौकरी की सख्त जरूरत थी.

मैं हर महीने अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा घर पर भेज देता था. हर हफ्ते में एक बार रविवार के दिन माँ से, पारिजात से और कन्हैया से बाते कर लेता था. बीच बीच में कभी कभी छुटकी से भी बाते कर लेता था. ज़िन्दगी बस चल रही थी.

पारिजात के फूल यहाँ पूना में भी दिखते थे, तब पारिजात की बहुत याद आती थी. मन मसोस कर रह जाता था. मैं उसे हर दुसरे दिन या तीसरे दिन चिट्ठी लिखता था. लेकिन भेज नहीं पाता था, उन चिट्ठियों को मैं उसे खुद पढ़कर सुनाना चाहता था ताकि वो मेरी भावनाओं को उसी पल में समझे. मैंने उसके लिए बहुत सी कविताएं लिखी, नज्में लिखी, और बहुत सी बाते लिखी, रोजमर्रा की बातें, दिन भर की बातें, बहुत सारी बातें. हमारी शादी की बाते, शादी के बाद के जीवन की बाते, और उस जीवन में रहने वाले हमारे प्रेम की बाते. बस बाते बाते और बाते. सारी चिट्ठियाँ बचा कर रखी.

दीवाली आने वाली थी, हम सब ने घर जा

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