विजय कुमार सप्पत्ति
खुदा से बड़ा रंगरेज कोई दूसरा नहीं है वो किसे क्या देता है, क्यों देता है, कब देता है, ये उसके सिवा कोई न जाने.ये सब सिर्फ और सिर्फ वो रब ही जाने. मोहब्बत भी एक ऐसी ही नेमत है खुदा की.हमारी मोहब्बत भी उसी नेमत का एक नाम है, और हाँ न; एक और नाम है उस नेमत का – तुम !!!
:::::::::::: अंत :::::::::::
अक्सर जब मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि तुम नहीं हो...!
कही भी नहीं हो.....बस तुम्हारा अहसास है......!
लेकिन क्या ये एक अंत है ?
मुझे तो यकीन नहीं हैऔर तुम्हे ?
:::::::::::: मध्य :::::::::::
तुम मुझे देख रही थी.
और मैं तुम्हारे हाथो की उंगलियों को.
जाने क्या बात थी उनमे. मुझे लगता था कि तुम अपने हाथ को मेरे सीने से लगाकर कह दोगी कि तुम्हे मुझसे प्रेम है.
पर तुम कम कहती थी. मैं ज्यादा सुनने की चाह रखता था.
शब्द बहुत थे, लेकिन हम दोनों के लिए कम थे.
पहले मैं बहुत ज्यादा सोचता था और चाहता था कि तुम तक ये शब्द पहुँच जाए किसी तरह.
पर प्रेम और जीवन की राहे शायद अलग अलग होती है.शब्द अक्सर राहे बदल दिया करते थे. और मैं जीवन की प्रतीक्षा में जीवन को ही बहते देखता था.चुपचाप.
मैंने फिर लिख कर तुमसे अपने शब्दों की पहचान करवाई. तुम शब्दों को, मेरे शब्दों को जान जाती थी और समझ जाती थी कि मैं क्या कहना चाहता था. पर फिर भी तुम वो सब कुछ नहीं पढ़ पाती थी, जो मैं अपने शब्दों में छुपा कर भेजता था! हमारा लिखना पढना बेकार ही साबित हुआ!
फिर मैंने कहना शुरू किया और तुमने सुनना. अब तुम मेरे शब्दों की कम्पन को पहचान जाती थी. लेकिन तुमने वही सुना जो मैंने कहा. तुम वो न सुन सकी जो मैं कह नहीं पाया!
और अब अंत में मैंने मौन को अपनाया है. तुम जानती तो होगी कि मौन के भी स्वर होते है.तुम सुन रही हो न मुझे मेरे मौन में ?
मैं ये भी चाहता था कि सत्य जानो तुम और शायद मुझे भी जानना ही था सत्य! पर मैं चाहता था कि तुम पहले जानो और समझो कि मैं प्रेम में हूँ. तुम्हारे प्रेम में !
लेकिन तुमने प्रेम को पढ़ा था, सुना था और शायद जाना भी था पर समझा था कि नहीं ये मुझे नहीं पता था ; क्योंकि तुम मेरे प्रेम को पाकर असमंजस में थी. मैंने कोशिश की पर तुम जान न सकी.
क्योंकि तुम्हे प्रेम में होना पता न था! तुम सिर्फ प्रेम करना जानती थी. पर प्रेम में होना उसके बहुत आगे की घटना होती है और वही घटना मेरे साथ घट रही थी.
समय की गति और मन की गति के दरमियान प्रेम आ चूका था और अब एक बेवजह की जिद है कि प्रेम ज़िन्दगी को जीत ले.
प्रेम शिखर पर ही होता है
और हम इंसान उसके नीचे!
हमेशा ही!
उम्र के और समय के अपने फासले थे. मेरे और तुम्हारे दरमियान.तुम्हारे और मेरे दरमियान.हम दोनों और दुनिया के दरमियान. हम दोनों, दुनिया और ईश्वर के दरमियान! सब कुछ कितना ठहरा हुआ था न. अब भी है. उम्र भी रुकी हुई ही है , समय भी ठहरा हुआ है और ज़िन्दगी भी रुकी हुई है !
याद है तुम्हे, हम एक बहती नदी के बीच में खड़े थे. पानी की छोटी छोटी लहरे हम दोनों के पैरों के बीच में से निकल जाती थी. तुम पानी को देख रही थी. और मैं सोच रहा था कि काश एक जीवन ही बीत जाता ऐसे ही. और ये भी सही है कि उस ज़िन्दगी का उम्र से क्या रिश्ता, जिन लम्हों में तुम मेरे साथ थी उसी में तुम्हे जी लिया. ज़िन्दगी को जी लिया. प्रेम को जी लिया. खुदा को जी लिया. सच में!
मुझे कभी तुम छु लेती. कभी तुम्हारा आसमान छु लेता, कभी तुम्हारी धरती मुझे आगोश में ले लेती. कभी तुममे मौजूद नदी मुझे भिगो देती. कभी तुममे मौजूद समंदर ही मुझे डुबो लेता. कभी कभी तो सच में तुम ही मुझे छु लेती. तुम्हारी छुअन को अब तक सहेजे रखा है मैंने अपने मन की परतो में. सच्ची!
और तुम्हारी इसी छुअन की वजह से मुझे अब मेरे जिंदा होने का अहसास होता है.
इंतज़ार बहुत लम्बा है. समय की सीमा से परे. तुम्हारे पुकार की तमन्ना रहती है. एक अधूरी आस. तुम पुकार लेती तो मन कह लेता न कि हाँ न, मैं हूँ. तुम हो और है हमारा प्रेम!
तुम्हे किसी से तो अपनी मन की कहनी थी भले वो तुम्हारी बेचैनी हो या फिर मन का तलाश, पर कहनी तो थी मुझसे कह ली, मुझे मेरा सकून तलाशना था बस इस तलाश की तलाश में कई और बाते भी जुड़ गयी और मैं तुम तक पहुँच गया. एक सफ़र यहाँ ख़त्म हो रहा था. या हो गया था और दूसरा शुरू होने वाला था या हो गया था. कौन जाने. खुदा जाने या तो तुम जानो. मैं भला क्या जानू.
खोज शुरू थी एक अनंत काल से. मैंने हर मुनसिब जगह ढूँढा तुम्हे. जहाँ देवता पूजे जाते थे वहां भी और वहां भी जहाँ धरती आकाश से मिलती थी. और वहां भी जहाँ अँधेरा उजाले से मिलता था. पता नहीं और भी कहाँ कहाँ! पता नहीं किस जन्म का नाता था तुमसे. तुम्हे सपनो में देखता था पहले, फिर अपनी नज्मो में. फिर मन में और फिर एक बहती नीली नदी के किनारे! तुम ही तो थी! सच !
जहाँ सब ख़त्म हो जाता है, वहां कुछ नए के शुरू होने की उम्मीद होती है. बस जहाँ रीते हुए जीवन की अंतिम बूँद बनी, वही पर आकर तुम मिली. और एक कथा शुरू हुई. नयी. मेरी और तुम्हारी. हाँ!
मुझे लिखना अच्छा लगता है. और ख़ास कर तुम्हे लिखना. और जब मैं तुम्हे लिखता हूँ तो बस सिर्फ तुम ही तो होती हो. और दूसरा कोई हो भी नहीं सकता न. मैं तुममे मौजूद स्त्री के प्रेम में हूँ और जब मैं उस स्त्री के प्रेम मे होता हूँ जो कि तुम हो तो मेरी कोई और दुनिया नहीं होती है. और सच कहूँ तो हो भी नहीं सकती! और जब तुम,तुममे मौजूद स्त्री और उस स्त्री में मौजूद प्रेम जो कि शायद मेरे लिए ही मौजूद होते है तब मैं लिखता हूँ अक्षर, प्रेम, कविता ,कथा और ज़िन्दगी!
प्रेम कठिन नहीं होता, ये तो सबसे सरल भाव है जिसे हमने अहोभाव के साथ स्वीकार करना चाहिए. पर हाँ जब हम उसे समाज के साथ जोड़ देते है तो फिर प्रेम कठिन हो जाता है तब वो प्रेम आत्मिक न होकर सामाजिक हो जाता है और फिर भला समाज ने कब प्रेम का साथ दिया है! हैं न. तो आओ सिर्फ प्रेम करे. कुछ और न सोचे और न ही जाने! बस प्रेम करे!
मुझे तुमसे तब प्रेम नहीं हुआ, जब मैंने तुम्हे देखा था. और तब भी नहीं,जब मैंने तुम्हे पहली बार छुआ था और तब तो बिलकुल भी नहीं जब मैं तुम्हारे साथ कुछ कदम साथ चला था. हाँ जब उस बहती नदी ने कहा कि तुम मेरी soul mateहो और जब वहां मौजूद पर्वतो ने कहा कि तुम मेरी soul mateहो और उस बहती नाव ने कहा था कि तुम मेरी soul mateहो और उन मेघो से भरे आकाश ने कहा कि तुम मेरी soul mateहो–तब हाँ शायद तब मुझे प्रेम हुआ तुमसे. और फिर उसके बाद मुझे तुमसे प्रेम तब हुआ, जब तुमने मुझे देखा था. हाँ मुझे तुमसे प्रेम तब हुआ जब तुमने मुझे छुआ था और हाँ मुझे तुमसे प्रेम तब भी हुआ जब तुम कुछ कदम मेरे साथ चली थी. हाँ मुझे तुमसे प्रेम है.
नदी में तुम, रास्तो पर तुम, मंदिर में तुम ; धरती, जल और आकाश. हर जगह बस तुम. तुम से ही तो है न ये कायनात. प्रेम में जब इंसान होता है तो कुछ ऐसा ही तो लगता है. मुझे भी लगा. हाँ. मैं प्रेम में हूँ – तुम्हारे प्रेम में................ सच्ची!
याद है तुम्हे वो सर्दियों के दिन थे और एक रात हमने भी जी साथ साथ. वो भी सर्द थी. हाँ तब एक बार ये चाह उठी कि तुम से वो तीन शब्द कहता जो कि सदियों से दोहराए जा रहे थे. और आश्चर्य कि वो अब भी उतने ही ताज़े महसूस होते है. प्रेम होता ही कुछ ऐसा है. उस सर्द रात में ऐसे कई लम्हे थे, जब तुम मेरे मन तक पहुंची और मैंने उन्हें संजोकर रख दिया इस जन्म के लिए. उसी रात को पता नही ऐसा क्या बो दिया था तुमने मेरी आँखों में कि सपने उग आये है मेरे मन में. सच्ची. खैर वो तीन शब्द अब तक नहीं कहे जा चुके है. पता नहीं मेरी रूह की बारी कब आएँगी.
मैं चाहता था कि तुम्हे कुछ फूल दूं, पर जिन रास्तो पर हम चले, उन पर फूल नहीं थे. उनपर ज़िन्दगी थी. ज़िन्दगी, फूल और प्रेम ये तीनो ही अलग अलग दास्तानों की वजह है. ज़िन्दगी की अपनी राह होती है और प्रेम की अपनी. फूल ज़िन्दगी के लिए भी काम आते है और प्रेम के लिए. प्रेम में फूल अभिव्यक्ति बन जाते है - ज़िन्दगी के लिए. सो मैं जीना चाहता था / हूँ ; प्रेम के संग तुम्हारे साथ. भले ही वो कुछ लम्हे हो. पर देवताओ की साज़िश कुछ अलग होती है. उनकी बाते तो वही जाने. मैं अपनी कहता हूँ. तुम सुन सकती हो मुझे ? कहो तो!
समस्या वक़्त की है. मैं वक़्त के इन्तजार में हूँ. और एक दुआ भी साथ साथ करते रहता हूँ कि या तो वक़्त आ जाए या फिर तु ही आ जाए. वक़्त ही पहले आया. तुमने भी आना चाहा होंगा. पर वक़्त के आगे किसकी चली है और फिर जिन राहो पर चलकर तुम आना चाहती थी. वो शायद मुझ तक नहीं पहुँचती होंगी. या फिर जिस राह पर मैं चल था तुम तक पहुँचने के लिए शायद वो ही गलत थी. या फिर तुम मुझ तक पहुंचना ही नहीं चाहती...पर जो भी हो; कुछ ठहर गया है. हमेशा के लिए!
दिन पानी की तरह गुजर जाते है जैसे कोई बहती हुई नदी हो और रात यूँ बेअसर सी निकल जाती है जैसे ज़िन्दगी में एक ही रात आई हो, जो मैंने तुम्हारे संग जिया है. जीवन तो रेत की तरह फिसला है हाथो की लकीरों से. पर मैंने तुम्हारे प्रेम को अपनी ओक में लेकर अमृत की तरह पिया है इसलिए तो जीवित हूँ एक शब्द की गूँज की तरह! क्या जब तुम अकेली होती हो तो मेरे शब्दों की गूँज सुनाई देती है तुम्हे?
क्या किसी ने तुमसे पहले कहा है कि जब तुम खामोश रहती हो तो तब भी तुम कुछ कहती ही रहती हो. तुम्हारे अनकहे शब्द कुछ ज्यादा ही मुझ तक पहुँचते है. तुम जानती हो न कि मैं तुम्हारी ख़ामोशी को भी सुन लेता हूँ पर सवाल तुम्हारा है कि क्या तुमने मुझे पूरी तरह सुना ?
खैर मैंने यात्रा शुरू की है.ये यात्रा है मुझसे तुम तक और तुमसे मुझ तक और अंत में हम दोनों की प्रेम तक और प्रेम से अध्यात्म के अस्तित्व तक. देखते है क्या ये यात्रा हो भी पाती है या नहीं.क्योंकि जो चारवाह हमारी यात्रा करवा रहा है उसकी खुदाई हर बन्दे के लिए अलग ही होती है.
यात्रा पर हमारे साथ होंगे चन्द्रमा, तारे, बादल, सूरज, नदी, धरती, मेरा मैं और तुम्हारा तुम! इस यात्रा के साथ हमारे मन की भी यात्रा होंगी बाहर से भीतर की ओर और भीतर से बाहर की ओर.
दूसरी सारी यात्राये ख़त्म हो जायेंगी , बस हमारी ये यात्राये चलती रहेंगी. मैं तुमसे वादा करता हूँ कि मैं तुम्हारा इन्तजार करूँगा इस उम्र भर के लिए और उस यात्रा के लिए भी. हो सकता है कि हम रुक जाए पर मन चलते रहेंगे. और फिर एक दिन मन भी रुक जायेंगे.यात्रा अनंत है किसी मन की तरह .....और मन अशांत होता है. प्रेम शांत है.पर कहीं कुछ चुभता है. जीवन की फांस! हाँ!
शायर बशर नवाज़ साहब ने लिखा था करोंगे याद तो हर बात याद आएँगी. तुम्हे क्या क्या याद है. बताओ तो. मुझे तो सब कुछ याद है, तुम्हारा मुझे थामना, मेरे लिए चिंतित होना और हाँ, शायद मन के किसी कोने में मेरे अहसास को घर देना. ये सब बस हुआ है. हो गया है. ठीक उसी तरह से जैसे दुनिया के सबसे बड़े डायरेक्टर ने कहा होंगा. अब तुम ये करो और हम कर बैठे. ऐसे देखो और हमने देखा, ऐसे छुओ और हमने छुआ. और उसने ये भी कहा था कि प्रेम करो. मैंने तो सुन लिया था. और तुमने ?
जो होता है सब पहली बार ही होता है. इस पहली बार में भले ही शब्द पुराने हो, पर धड़कन नयी होती है. उन शब्दों की ज़िन्दगी नयी होती है. उनकी उम्र भी नयी होती है. उनकी तासीर नयी होती है. उनके जज़्बात नए होते है. पता नहीं तुमने ये सब कुछ महसूस किया या नहीं. पर मैंने तो इन्हें जी लिया, उन चंद शब्दों में जो तुमने मुझसे कहे.
तुम्हारा हँसना वो दूसरी बात थी जिसने मुझे तुरंत ही तुमसे जोड़ा. तुम्हारी हंसी में पता नही कितनी मुक्तता भरी हुई है. जीवन की मुक्तता, उड़ने की मुक्तता. पता नहीं कितने आकाश चाहिए होंगे तुम्हे खुद को पंख देने के लिए. या यूँ भी समझ लो, पता नहीं कितने पंख चाहिए होंगे तुम्हे इन आकाशो में उड़ने के लिए. तुम्हारे सपनो की उड़ानों में एक परवाज शायद मैं भी बन सकू. कौन जानता है. किसी की उड़ान को ! हाँ, कौन उड़ सकता है ये मुझे पता है. मैं और तुम.
प्रेम की संभावनाए अनंत है. जब हम किसी और लोक में होते है जो दुनियादारी से जुडी हुई होती है तो प्रेम की खुशबु मंद हो जाती है. हम इस कठोर और पागल समाज में अपने प्रेम को कैसे ढूंढें और कैसे बचाए रखे. पर जैसे कि मैंने कहा कि प्रेम की संभावनाए अनंत है. मैंने तो मेरा प्रेम तुममे ढूंढ लिया और संभव हो कि तुम्हारा प्रेम भी मुझमे ही कहीं मौजूद हो. सवाल ढूँढने का है. तो ढूंढो! मैं अब भी तुम्हारी उस तलाश की प्रतीक्षा में हूँ जिसके द्वारा तुम मुझ तक पहुँचो.
मुझे लगता है कि तुम मौन में मुझसे कितना कुछ लेती हो. हाँ, ये एक सवाल जरुर है कि मैं उस अनकहे को किस तरह से decode करता हूँ. पर अगर हम प्रेम के एक वेवलेंथ पर है तो फिर सुनना क्या, समझना क्या और जानना क्या. पर बताओ तो भला, क्या तुम मुझे decode कर सकी हो.
तुमने कहा था कि तुम मुझे पुकारोगी. मैं इन्तजार करता रहा. एक एक पल में मैंने जैसे सदियों का सफ़र तय किया हो. दिन ढलते ढलते रात में तब्दील हो गया और रात गुजरते गुजरते फिर दुसरे दिन में बदल गयी न तुमने पुकारा और न ही मैंने उम्मीद छोड़ी. मैं भूल सा जाता था कि तुम्हारे अपने भी बंधन होगे, अपनी दुनिया होंगी, जिसमे मेरी तो यकीनन कोई जगह नहीं होंगी. लेकिन मेरी प्रार्थना तुम्हारे दिल में पनाह पाने की थी, न कि दुनिया में ;तुम्हारी दुनिया में. मेरी पनाह की ख्वाईश बहुत बड़ी न थी, लेकिन उसके लिए दिल का बड़ा होना जरुरी था. सो तुम्हारे एक पुकार की चाह में मेरी पनाह की ख्वाईशछुपी हुई है . न तुमने पुकारा और न ही मैंने अब तक उम्मीद छोड़ी है. मुझे तुम्हारे साथ लम्हों में जो जीना है. प्रेम लम्हों में ही तो होता है.
मुझसे शुरू होते दिनो को मैं भेज देता था तुम्हे छूकर वापस आने के लिए, पर किसी भी दिन ने मुझसे ये नहीं कहा कि वो तुम्हे छु पाया है. मैं इन्तजार करते रहता, दिन आते, तुम तक मैं उन्हें भेजता, और वो कभी भी वापस नहीं आते. हाँ राते आती जरुर एक मायूसी के साथ. मैं तुम्हारा नाम लिखते रहता हवाओं पर. और मैं पूछता था अपने खुदा से तुम इस वक़्त क्या कर रही होंगी. क्या तुमने कभी मेरी छुअन को महसूस किया या फिर हवाओं से पुकारती हुई मेरी आवाज़ को सुना. वैसे जब तुम ये पढ़ रही हो क्या तुम्हे पता है कि मैं तुम्हे देख रहा हूँ अपने शब्दों से झांककर!
मुझे बड़ा गुमान था कि सारी सड़के या तो तुझ तक पहुंचती है या फिर मेरे खुदा तक. मैं चलता रहा [ अब भी चल ही रहा हूँ एक झूठी उम्मीद के सहारे ]. जिस राह पर मेरे कदम पड़े थे वो राह निश्चित ही तुम तक कभी भी नहीं पहुंचेंगी,क्योंकि ये रास्ते विधाता ने बनाये है. मुझे विधाता के विधान से कोई एक शिकायत थोड़ी ही है.बहुत सी है, पर तुम तक न पहुँच पाना यकीनन मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ देता है. मैंने ईश्वर से कुछ ज्यादा थोड़े माँगा है. लेकिन देवता कब किसी की बाते सुनते है.
मैं अपनी प्रार्थना के साथ अकेला बैठा हूँ. और रात बीत रही है. देवता भी सो चुके है.लेकिन मैं तुम्हारे सपने के साथ जग रहा हूँ.कम से कम सपनो में तो मिलने आ जाओ.एक बार! तुमसे मिल लूं, फिर मैं अपने खुदा से मिल लूँगा.
मैं तुमसे पूछना चाह रहा था कि क्या तुम्हारी हाथो की लकीरों में मेरा नाम है. या तुम्हारी किस्मत में मेरी परछाई है. मुझे यकीन है. पर तुम्हारा मुझे पता नहीं. किसी नजूमी से पूछ तो लो कि तुम्हारी ज़िन्दगी में क्या मैं हूँ ? किस्मत के फैसले भी तो अजीब होते है.
मेरे पास कई सवाल है, तुम्हारे पास शायद कुछ सवालों का जवाब हो, पर खुदा के पास तो हर सवाल का जवाब होता है. वो क्यों मूक बना रहता है. देवताओ को हमने पत्थर का क्या बनाया, वो बस पत्थर के ही हो गए. मेरे हर सवाल के तीन जवाब है, एक मेरा, एक तेरा और एक उस खुदा का. खुदा के जवाब मुझे नहीं सुनना है. हाँ तुम कहो न. झूठ ही कह दो. मैं सच मान लूँगा.
हमारा बहुत कुछ जानना ही प्रेम को न जानने में हमारी मदद करता है, हां न, हम सारी दुनिया की बात जानते है और समझते है पर बस प्रेम को न जान पाते है और न ही समझ पाते है, दुनिया की दुनियादारी जो साथ साथ चलती है. क्या करे. पर मैं तुमसे कहू. मुझे तो तुमसे प्रेम है और तुम्हे ?
मैंने कुछ तस्वीरे ली थी तुम्हारी. और हर तस्वीर में थे – धरती, आसमान, नदी, तुम और हाँ खुदा भी तो था! मैंने तुम्हे आसमान के साथ चाहा! मैंने तुम्हे नदी के बहते पानी के साथ चाहा! हाँ तुम्हे धरती के साथ भी माना. और जब खुदा की बारी आई तो मैंने पुछा कि इतनी देर से क्यों ? खुदा की मुस्कराहट कुछ अजीब सी थी. मैंने फिर एक ज़िन्दगी की मांग की, तेरे संग ! खुदा फिर मुस्कराया! मैं उसकी मुस्कराहट को न समझ सका, क्योंकि मैं तुम्हारी मुस्कराहट देख रहा था! और हाँ , हर तस्वीर में शायद मेरे प्रेम की आभा भी थी.
मुझे लगता है कि तुम तक पहुंचना बहुत आसान है मेरे लिए! पर इस राह में तीन दरवाजे है जो मुझे पार करने होते है. एक मेरा दरवाजा. एक दुनिया का दरवाज़ा और एक तुम्हारा दरवाज़ा. फिर तुम होती हो वहां अपनी मुस्कान के साथ और अपने स्पर्श के साथ! दरवाजे पार करने की कवायद में कहीं ये उम्र न बीत जाए,बस कुछ इसी बात का डर है मुझे! हाँ इन दरवाजो को पार करते हुए मैं तुम्हे देखते रहता हूँ कि कहीं तुम खो न जाओ,जब मैं अंतिम दरवाजे तक पहुंचू तो तुम मिलो वहां मुझे, भले ही हमेशा के लिए न सही, पर मिलो तो, कुछ लम्हों के लिए ही भला. मेरे लिए तो वो लम्हे ही अमूल्य होंगे!
जब मैंने तुम्हे उस दिन विदा किया तो बहुत देर तक वहां खड़ा रहा. तुम चली गयी और मैं सोचते रहा कि एक बार भी अगर तुम से मैंने कहा होता कि रुक जाओ तो क्या तुम रुक जाती. कहो तो ? नहीं न. पर मैंने मन ही मन कहा, क्या तुमने सुना ? नहीं न. और अगर तुम सुन लेती तो क्या लौट आती, नहीं न. मैं अब भी कह रहा हूँ, रुक जाओ, आ जाओ. तुम सुन रही हो क्या ?
तुमसे मिलते ही शायद ये तय हो गया था कि छूटना है साथ! पता नहीं, लेकिन मैं देवताओ पर बहुत विश्वास करता था / हूँ. तुम चली गयी पर शायद नहीं गयी. हो न मेरे साथ मेरी यादो में. पीछे तो बहुत कुछ छूट गया है. मेरा खाली मन भी उन सामानों में से एक है. हाँ और जो रह गया है, उसमे तुम्हारी छुअन, तुम्हारी साँसे, तुम्हारी बाते और तुम्हारी गहरी आँखे भी है. पता नहीं तुम क्या क्या साथ लेकर गयी हो. अगर मेरा कुछ है तो मुझे भी तो बताओ न !
मुझे तो लगता है कि हर बात आधी है. हमने जो जिया वो भी आधा और जो जियेंगे वो भी आधा. और जो न जी पायेंगे वो भी आधा ही होंगा. हम कुछ कदम चले वो भी हमने आधी दूरी ही तय की.हमने आधा आसमान देखा, हमने आधी नदी देखी, हमने आधे पर्वत देखे, यहाँ तक कि जब भी देखते थे तो नाव भी आधी ही दिखती थी. कैसा कंट्रास्ट है लाइफ का. भला आधा कहीं होता है नहीं न पर हमारे मामले में ये आधा ही था. शब्द भी आधे, सफ़र भी आधा, ज़िन्दगी भी आधी,उम्र भी आधी, आह क्या मुझे पूरा कुछ मिल पायेंगा, हाँ, प्रेम है न, तुम्हारा प्रेम !
मिलना बिछड़ना, फिर मिलना और फिर बिछड़ना, क्या यही नियति है हमारी या यही नियति होंगी हमारी. मैं नहीं जानता. मैं जानना भी नहीं चाहता. मुझे डर लगता है,ज़िन्दगी से, किस्मत से और तुम से भी. भय है मुझे कि कहीं मैं तुम्हे खो न दूं. खोने का डर मुझे हमेशा ही रहा है. मैं तुम्हे खो कर रोना नहीं चाहता.
लेकिन क्या ये वाकई मेरे या तुम्हारे या हम दोनों के द्वारा संभव है,कहो तो. क्या हम भाग्य को जीत सकते है, कहो तो, क्या हम भाग्य बदल सकते है, कहो तो, क्या हम खुदा के निजाम को चुनोती दे सकते है. कहो तो.... पता नहीं.सच कहूँ तो मैं ये सब जानना ही नहीं चाहता. ये सब दुनियादारी की बाते है और मैं इन बातो में पड़ना नहीं चाहता. हाँ मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हे चाहता हूँ और यही एक बात बहुत सी हज़ार बातो पर भारी है. हैं न!
मैं बहुत चुप रहता हूँ. मैं अपनी ज़िन्दगी में बहुत कम बात करता हूँ, हाँ, जब दुसरो के साथ होता हूँ तो बहुत हंसता हूँ बाते करता हूँ, पर मेरे निजी एकांत में सिर्फ मौन ही मेरा साथी होता है. मेरी प्रार्थनाये भी चुप ही होती है. मैं, मेरे देवता और हम दोनों के मध्य का मौन और इसी मौन के अहोभाव में बसी हुई मेरी प्रार्थनाये, इस प्रथ्वी के लिए, इस संसार के मनुष्यों के लिए, बच्चो, स्त्रीयों, बुढो, वृक्ष, खेत और पशुओ के लिए. और उस दिन भी जब नदी के तट पर मैं अपने भीतर से जुड़ा तो उसी मौन में मैंने तुम्हे पाया. मेरे लिए तुम ईश्वर के किसी आशीर्वाद से कम नहीं हो.
और फिर मानना क्या है, जानना क्या है. जो तुम कहो, वही मान लूँगा और वही जान लूँगा. मेरे लिए तो मेरा और मेरे प्रेम का CIRCLE तुम पर आकर ही पूर्ण होता है. तुम मानो या न मानो. तुम जानो या न जानो. पर मेरा सच तो यही है. और मेरा प्रेम भी यही है!
हाँ ये भी हो सकता है कि बदलते वक़्त के साथ तुम्हारे आसमान अलग हो जाए या तुम्हारे आकाश की विस्तृता बड़ी हो जाए. असीम हो जाए. कौन जाने. हमारी आकांक्षाये बढती जाती है. कभी कभी ये इच्छाए और आकांक्षाये एक हथेली में नहीं समाती है इनके लिए एक आसमान भी कम पड़ता है. पर मेरी हथेली में मैं सिर्फ तुम्हारे नाम की लकीरों को चाहता हूँ. मैं ये भी चाहता हूँ कि मेरा जो भी आसमान हो वो बहुत बड़ा न हो. बस छोटा सा हो. बहुत छोटा सा. जिसमे मैं तुम्हारे साथ सांस ले सकूँ, तुम्हारे नाम की सांस ले सकू, तुम्हे छु सकूँ, तुम्हे पा सकूँ और कह सकूँ कि हाँ तुम मेरी हो.
मैं ये भी नहीं चाहता हूँ कि हम बने-बनाए संबंधो में अपने आपको ढाल ले. मैं किसी और रूप में खुद को या तुम को और हम दोनों को नहीं देखना चाहता हूँ. जो कुछ भी हो बस हमारा ही हो, नया, ठीक उस रात की यात्रा की तरह, ठीक उस नदी के बहते पानी की तरह या मेरे निर्वाण की तरह.. मोक्ष या तो मैं तुम्हारी आगोश में पाऊंगा या फिर बुद्ध के चरणों में! सच्ची!
हो सकता है कि एक दिन ऐसा आये कि सिर्फ शिकायते ही बची रहे हमारी हथेलियों में. हम भी तो मनुष्य ही है. हो सकता है, या होगा भी. कौन जाने. पर मेरा विश्वास करना, मेरा प्रेम कम न होंगा. मान्यताये बदले, जरूरते बदले, जीवन बदले, सोच भी बदल जाए, पर तुम्हारी कसम, मेरा प्रेम न बदलेंगा तुम्हारे लिए, इस बात का वादा तो कर ही सकता हूँ. प्रेम पर धुल न चढ़े इस बात का ख्याल रहेंगा मुझे, हाँ वक़्त पर धुल बैठ जाये. हमें क्या. नहीं ?
बहुत बरसो का खालीपन था मेरे भीतर! तुमने भर दिया या मैंने ही उसे तुमसे भर दिया. दोनों एक ही बात नहीं है पर मेरे लिए एक ही है. ऐसे ही बावरा रहना चाहता हूँ. इसी में मेरी ख़ुशी है, यही मेरी जन्नत है. अगर ये झूठ है तो यही सही. लेकिन इसकी ख़ामोशी में बहुत से शब्द है, जो मेरे होकर भी मेरे नहीं है. तुम जानती हो, तुमने क्या क्या भरा मुझमे उस रात और उस दिन ? नहीं...मैं जानता हूँ. एक उम्र भरी है जिसमे एक मोहब्बत का अफसाना है.
तुम शायद पूछना चाहोंगी, तो मैं बता दूं, कि उस रात मैंने तुम्हे छूना चाहा था. मैं चाहता था छूना तुम्हारे गालो को और तुम्हारे होंठो को भी. मैं चाहता था छूना तुम्हारी साँसों को.और चाहता था छूना तुम्हारे दिल को जिसे मेरे दिल ने पहले छुआ था! मुझसे भी पहले छुआ था. और तुम जब संग बैठी थी तो एक आंच दिल में लगा गयी हो, वो आंच अब एक अलख बन कर जग रही है.तुम्हारी यादो के साथ!
तुमने उस रात मेरा हाथ थामा था, मेरी हथेली की रेखाओ को पढने की कोशिश कर रही थी. तुम्हे कैसे बताऊँ कि रेखाए किस्मत नहीं होती है. रेखाए बस दूरियों को बताती है कि तुम कितनी दूर हो मुझसे, या तुम्हे मुझसे मिलने में कितने जन्म लग गए या फिर शायद हमारी राहे अलग अलग है. पर मैंने कभी रेखाओं को नहीं माना है. हाँ खुदा को माना है,उसकी खुदाई को माना है, और हाँ न, तुम्हे भी तो माना है. सच में !
अक्सर लौट जाता हूँ उन सपनो से जो मैं तुम्हारे लिए देखता हूँ, क्योंकि तुम नहीं हो उन सपनो में. राहे जानी होती है लेकिन मुझे अनजानी लगती है. मैं देवताओ से प्रार्थना करता हूँ कि वो तुम्हे मेरी ज़िन्दगी में भेज दे. लेकिन देवता जवाब नहीं देते है. वो मुझे देखते है और मैं तुम्हे. कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ ख़त्म!
तय करना होता है बहुत सी बातो को. जीना भी होता है बहुत सी बातो को. जीने में और तय करके जीने में बहुत सा फर्क होता है. बस दोनों के मध्य तुम होती हो. जबकि मैं चाहता हूँ कि तुम या तो शुरुवात में रहो या फिर अंत में. और मैं बता दूं तुम्हे मैं अंत नहीं चाहता हूँ कभी भी!
सब कुछ कभी भी ख़त्म नहीं होता है. और न ही होंगा. ठहर जाने से तो कभी खत्म नहीं होता है. शायद इसे शुरुवात ही कह लो. मैं रुक जाऊं या तुम रुक जाओ, कुछ भी कभी भी ख़त्म नहीं होंगा!
मैंने तुम्हे ओक में जिया था उन लम्हों में. और ओक है कि खाली ही नहीं होती, अच्छा है न. कभी भी खाली न हो. मेरी साँसे भले खाली हो जाए, लेकिन ओक खाली न हो. तुमसे भरी रहे, तुम्हारी यादो से भरी रहे.जीवन से भरी रहे.प्रेम से भरी रहे.और हाँ खुदा की खुदाई से भी भरी रहे! तुम बस वादा करो कि कभी भी ये ओक जो तुमसे भरी हुई है खाली नहीं होंगी! तुम उसे खाली नहीं होने दोंगी!
मैं इस जन्म में फिर से तुम्हे समेटना चाहता हूँ उन्ही पत्थरो की बीच में, उसी बहती नदी के बीच में. वैसे ही किसी नाव में. उन्ही हवाओ में ! इसी जन्म में. सच्ची! मिलोंगी न ?
कितनी बाते करनी होती है तुमसे........ लगता है ज़िन्दगी ख़त्म हो जायेंगी, लेकिन बाते ख़त्म न होंगी. सच्ची! कितना कुछ कहना है तुमसे, कुछ इस जन्म की बाते तो कुछ उस जन्म की बाते. कभी तो बहुत बाते और कभी तो कुछ भी नहीं. सिर्फ मौन. तुम और मैं. हम. सिर्फ हम. और हाँ प्रेम भी रहे. ताकि हम बचे रहे जीवित किसी और जन्म के लिए!
थोडा यकीन करना मेरा. थोडा यकीन करना खुदा का और थोडा कुछ तुम्हारी किस्मत का और थोडा कुछ मेरी किस्मत का! बस जीवन कट जायेंगा! लेकिन मैं तो लम्हों में जीना चाहता हूँ. जियोंगी मेरे साथ अपनी किस्मत के डोर लेकर ? कहो न!
तुम जानती हो, मैं कितना कुछ लिखना चाहता हूँ, और कौन जाने तुम इसे पढ़ भी पाती हो या नहीं. लेकिन क्या तुम उसे भी पढ़ लेती हो, जो मैंने नहीं लिखा! जानती हो उन अक्षरो को, उस भाषा को जिसे सिर्फ प्रेम की आँखे पढ़ पाती है. हाँ, उसके लिए प्रेम में होना जरुरी होता है. मैं हूँ. तुम्हारे प्रेम में. क्या तुम भी हो. एक बार तो कह दो!
जिन कदमो के निशान हमने छोड़े थे; वो क्या वही रहंगे उन राहो पर ,जिन पर हमने कुछ कदम साथ चले थे. वो फिजा जिसमे हमने साँसे ली थी, वो सारी जगह जहाँ जहाँ मैंने तुम्हे देखा, और हर बार पहली बार जैसे ही देखा. क्या वो सब कुछ हमेशा के लिए फ्रोजेन नहीं हो गया होंगा. सोचो तो. मुझे लगता है की हाँ वो फ्रोजेन है एक टाइम फ्रेम में हमेशा के लिए. तुम्हारे लिए, मेरे लिए, हमारे लिए.खुदा के लिए और प्रेम के लिए भी !
हर आने वाला कल बीता हुआ कल बन जाता है. और तुम कहती रहती हो कि कल !!! कल तो आकर भी चला जाता है पर तुम नहीं आती हो. आ जाओ या बुला लो. दोनों सूरतो में मैं तुम्हारा ही होना चाहता हूँ.
मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम मिल जाओंगी. पर मिली. भले ही कुछ समय के लिए, पर मिली. भले ही खो जाने के लिए शायद, पर मिली. अगर कभी न कुछ न मिला तो वो होंगा ज़िन्दगी का एक टुकड़ा जो मैं तुम्हारे साथ जीना चाहूँगा!
प्रेम अलग है, जीवन अलग है, समाज अलग है, प्रेम इन सब बातो से परे है, प्रेम समाज से परे होकर जीता है और वो उसका अपना ही समाज होता है. प्रेम की असफलता के कई कारण हो सकते है पर प्रेम के होने का सिर्फ और सिर्फ एक ही कारण हो सकता है और वो प्रेम ही है.
प्रेम हमेशा ही अधुरा होता है. जिसे हम पूर्णता समझते है, वो कभी भी प्रेम नहीं हो सकता. प्रेम का कैनवास इतना बड़ा होता है कि एक ज़िन्दगी उसमे समाई नहीं जा सकती है. जब आप प्रेम में होते है तो आपको पता चलता है कि आप एक ज़िन्दगी भी जी रहे है.....और ज़िन्दगी ; परत दर परत ज़िन्दगी के रहस्य खोलती है. जिसे आप सिर्फ प्रेम ही समझते है और प्रेम में ही जीते है.... और ऐसा जादू सिर्फ और सिर्फ प्रेम में ही होता है...! जैसे कि अब हो रहा है मेरे साथ !
मोड़ कई ऐसे आयेंगे, जब तुम मुझसे अलग होंगी या मैं तुमसे अलग होंगा, पर वो अलग होना हम दोनों को अलग नहीं कर सकता! At-least not me from you and I mean it !
और हां, मुझे जब तुम प्रेम में हो जाओंगी , प्रेम को समझोंगी , तब ही मुझे प्रेम करना.जब मैं तुम्हारा हिस्सा बन जाऊं तब ही तुम मुझे प्रेम करना.जब तुम्हे लगे कि तुम मेरे भीतर के मासूम बच्चे से जुड़ जाओ तब ही मुझे प्रेम करना.जब तुम्हे लगे कि मैं हूँ तुम्हारी साँसों में, तुम्हारी हथेली में, तुम्हारे माथे पर और तुम्हारे ह्रदय के भीतर तब ही मुझे प्रेम करना. और जब लगे कि मैं आजन्म तुम्हारे साए का एक हिस्सा बन चूका हूँ तब ही मुझसे प्रेम करना.
ये भी हो सकता है कि तुम कभी भी मुझसे प्रेम न करो.हम सब एक mind-set के साथ ही जीना चाहते है जो कि comfort zone हो. और प्रेम तो निश्चिंत ही comfort zone नहीं है. फैसला तुम पर ही छोड़ता हूँ.मेरा फैसला तो मैंने कर लिया है ! तुम जानती हो मेरे फैसले को. अब बारी तुम्हारी ही है. हो सकता है कि तुम न चाहो मुझे..... [ वैसे मैंने देवताओ से तुम्हे माँगा है पर देवता तो पत्थर के ही होते है न ]
तुम मेरी हमउम्र होती हो जब बात ख्यालो की होती है, बात अहसासों की होती है, बात ज़िन्दगी की होती है, बात प्रेम की होती है या फिर बात खुदा की होती है. सच्ची. हाँ जब बात खुदा की हो रही है तो कह दूं तुमसे, कि शायद तुमसे पहले ही जाऊं इस फानी दुनिया से. लेकिन तुम गम न करना. बस ये सोचना कि कोई था जो कुछ दूर चला तुम्हारे साथ. कुछ शब्द तुम्हारी झोली में डाल गया. कुछ देर तुम्हे देखता रहा. कुछ वक़्त जिसमे हमने एक उम्र गुजारी.....बस ऐसी ही कई बेमतलब की बाते जो मेरे जाने के बाद भी शायद तुम्हे याद रहेंगी...क्या तुम उन लम्हों को याद करके अपने कुछ आंसू मेरे नाम करोंगी? वही तो मेरी सच्ची जायदाद रहेंगी!सच्ची!
:::::::प्रारम्भ :::::::::
कहानी अब शुरू होती है प्रिये. कहानी तो बहुत बार कही जा चुकी होगी, बहुत बार सुनी जा चुकी होगी, और कई बार दोहराई गयी होगी. पर मेरे लिए ये कथा नहीं है, क्योंकि इसमें तुम हो. हाँ अब आगे की कथा मैं तुम्हे सौंपता हूँ.तुम्हारी किस्मत को सौंपता हूँ,
.......तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छु गया
दोस्ती मोहब्बत की हद तक गई!
मोहब्बत इश्क की हद तक!
और इश्क जूनून की हद तक!
.......अमृता प्रीतम
हाँ, प्रिये, मुझे तुमसे प्रेम है.
दरअसल : असली प्रेम तो प्रेम में होना ही होता है, प्रेम में पढ़ना, प्रेम में गिरना, प्रेम करना इत्यादि सिर्फ उपरी सतह के प्रेम होते है. असली प्रेम तो बस प्रेम में होना, प्रेम ही हो जाना होता है.प्रेम बस प्रेम ही ! और कुछ नहीं !
हाँ,प्रिये, मुझे तुमसे प्रेम है.
अब इन्तजार है बची हुई सारी उम्र के लिए.
तुम्हारा और तुम्हारे प्रेम का !
मैंने अपने दिल के दरवाजे खोल रखे है.
स्वागत है प्रिये. आ जाओ!!!
© कथा और चित्र विजय कुमार
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