रोज लेता हूँ सांस ,शहर की बू भीतर चली जाती है
सुबह शाम गुनाहों की इक शमा खूब जली जाती है |
जाने किसके मुक़द्दर में अँधेरा आया होगा
किसकी किस्मत से रौशनी निकली जाती है |
सडको पे मकोड़े सा रेंगते आदमी नज़र आता है
और इंसानियत की उम्र भी ढली जाती है |
कायदों की बाड़ हर मकान के आगे लगी देखी
मगर गरीब के हिस्से में ही ऐसी गली आती है|
दौलत ,दौलत ,मुझे कैसे भी बस मिल जाए
कोने कोने में रईसों की यही बेकली जाती है |
वैशाली भरद्वाज
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