Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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शव

 

‘’पापा ,आज हमें चिड़ियाघर दिखाने ले जायेंगे न ?’’ मेरे आठ साल के मासूम बेटे सुंदर ने सवाल किया ,जो कि कई दिनों से मुझसे जिद्द कर रहा था | हालाँकि मैं भी दफ्तर की किचकिच से परेशान ,घर पर सोकर आराम करना चाहता था लेकिन अपने छोटे से बेटे का रोआंसा सा मुहँ देखने की हिम्मत नहीं थी मुझ में ,जो कि वो मना करने पर बना लेता | मैंने उसे अपनी गोद में बैठा लिया |

 

“ सुधा ,एक कप चाय लाना |’’ मैंने अपनी पत्नी को आवाज़ दी क्योंकि मैं रविवार के सारे दिन के प्रोग्राम पर उसके साथ विचार विमर्श करना चाहता था |

 

सुधा जब चाय लेकर आई तो मैंने उससे सुंदर की इच्छा जाहिर कर दी और जिसे सुनकर वो भी खुश हो गई और झट से मान गई आखिर उसका मन भी खिलना चाहता था | ‘’तो सुधा ,आज सारा दिन बाहर बिताएंगे ,तुम बस नाश्ता बनाकर साथ में रख लो ,बाकी लंच और डिनर बाहर ही लेंगे |’’ ये सुनकर सुधा की बांछे खिल गई और उसने अपने बेटे सुंदर का मुख चूम लिया ,वैसे हक तो मेरा भी बनता था ,मैं मन ही मन सोच कर हंस दिया | नित्य कार्य निबटा कर हम तीनो बाहर घूमने जाने के लिए तैयार हो गए |

 

बस अड्डे पर जाकर हमने चिडियाघर की ओर जाने वाली बस पकड़ी और उसमे बैठ गए | मेरा बेटा सुंदर मेरे मोबाइल फोन से खेलने लगा और हम उसे देख कर खुश होते रहे | थोड़ी देर बाद ,तभी अचानक हमारी बस ,एक झटके के साथ रुकी ,सभी बस यात्री परेशान हो गए और खिड़कियों से बाहर झाँकने लगे |

 

बात करने पर पता चला कि किसी अज्ञात शव के कारण ट्रैफिक जाम लग गया | ये वाकई परेशानी की बात थी | मेरा बेटा सुंदर इस शोर शराबे के कारण रोने लगा तो सुधा ने उसे बिस्किट देकर बहलाया |
“अरे इस साले को मेरी बस के सामने ही मरना था ......... ड्राईवर ने बाहर थूकते हुए भद्दी गाली दी ,उस शव को जिसके कानों के लिए दुनिया के सारे ही शब्द मर चुके थे |

 

वो किसका शव था ,किस घर से था ,इस दुर्गति तक कैसे पहुंचा ?,ऐसे सैकड़ों सवाल उस शव से जुड़े अपना जवाब मांग रहे थे लेकिन यहाँ भी लोगो की अपनी निजी सवाल और समस्याएँ हावी हो रही थी | ‘’उफ़ यार ,मैं इंटरव्यू के लिए जमा पहले से लेट हूँ ‘’,एक नौजवान बार बार अपनी घड़ी देख कर झुंझला रहा था | हमारी बस का ड्राईवर बार बार होर्न बजा रहा था | बाहर जमा हुई भीड़ को तितरबितर करने के लिए सिर्फ एक पुलिस वाला डंडा बजाता हुआ चक्कर काट रहा था | “दुनिया भरी पड़ी है दुखों से ,छूट गया ये तो ,किसी साहब की ये पंक्ति सुनकर मुझे पता ही नहीं चला कि ये नकारात्मक थी या सकारात्मक !

 

हमारे नाश्ते का समय हो चला था लेकिन ऐसे हालत में ,जब एक शव पर हो- हल्ला हो रहा था ,हम खाना खाने कि शर्मनाक हरकत कैसे कर सकते थे ,हम नहीं चाहते थे कि लोगो का ध्यान उस शव पर से हटकर हमारी ओर हो जाये |सो अपनी भूख को दबाने में ही फायदा समझा | बच्चों पर कोई रोकटोक नहीं होती ,शुक्र है हमारे समाज में अभी इतनी दरियादिली बची हुई है ,नहीं तो आज हमारा बेटा सुंदर भी भूखा रह जाता |

 

सड़े हुए शव की बू के कारण लोगो की नाक पर उनके रुमाल आ चुके थे | मेरी पत्नी सुधा को तो उबकाई तक रही थी ,बस समाज की शर्म के कारण रुकी हुई थी | किसी के खत्म हुए जीवन के आगे ,लोगो को अपनी छुट्टी का समय बर्बाद होता खल रहा था | शव को उठवाने का इंतजाम करने में दो घंटे लग गए ओर तब कही जाकर जाम खुल सका | हमारी बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ी|


थोड़ी देर में हम चिडियाघर के भीतर खड़े थे | हमारा बेटा सुंदर वहाँ हरे भरे पेड़ पौधों और पिंजरे में बंद पड़े जंगली जानवरों को देख कर खुश होकर झूमने लगा लेकिन मेरे और सुधा के मन में अब तक शव और जाम की ही तस्वीरें घूम रही थी | लोगो के शब्दों की संवेदन हीनता गूंज रही थी | सच बात तो ये थी कि हम सुंदर को तो वो प्यारा सा चिड़ियाघर दिखा ही रहे थे लेकिन उससे पहले मैं और सुधा भी हमारे समाज का वो भद्दा चिडियाघर देख कर आ रहे थे जिसमे लोगो ने तरह तरह के जानवरों का रूप धारण कर लिया था |जिसमे लोग भाव शून्य हो चुके हैं और बस एक शव की तरह ही जीवन काट रहें हैं | जैसे लोगो को शव उठाने में भारी लगता है ,ठीक वैसे ही लोगो को एक दूसरे की उपस्तिथि भी भारी लगती है | शव की सी कठोरता शायद हमारे समाज के जीवन में भी आ चुकी है |

 

वैशाली भरद्वाज (pichu sharma)

 

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