"नही चाहता हूँ
किसी की सहानुभूति
न प्रेम, न दिलासा
न ही रखता हूँ
भविष्य से कोई आशा
जीवन के झंझावातो से
जमी बर्फ सा कठोर;
पिघलता हूँ, जमता हूँ
नित प्रति हर क्षण
जीता हूँ, मरता हूँ
नही चाहता आसान राह
जीवन को जीने की,
परवाह नही है
काँटो के पैरों मे चुभने की
रेगिस्तान मे
सूखा दरख्त हूँ ,
कुल्हाडो की धार का
अभ्यस्त हूँ,
शायद काम आ जाऊँ
मुक्ति पा जाऊँ,
किसी की चिता मे जल के
क्यूँ चाहूँगा
किसी से सहानुभूति
प्रेम और दिलासा
भविष्य से निरर्थक आशा॥"
-वरुण प्रताप सिंह
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