सभ्य समाज मे, मैं 'वेश्या'
चरित्रहीन, कलंक न जाने क्या ?
समाज का मैल हूँ ,
कलुषित युगों से शरीर मेरा ,
छूटी हूँ जहां से, क्या वो शरीर है तेरा ?
सभ्य समाज मे, मै 'वेश्या'
चरित्रहीन , कलंक न जाने क्या ?
चरित्र के दर्पण मे ,कई खुद को चमचमाते हैं ,
कुछ के चरित्र मेरी शैय्या पर नग्न नज़र आते हैं,
सत्य है , कलंक हूँ समाज मे ,
कलंकित है ,जीवन मेरा ,
तेरे चरित्र की मैल धोती हूँ , है समर्पण मेरा |
करुणा ,दया ,और प्रेम पर न अधिकार मेरा ,
तन ,मन ,हृदय मेरी आत्मा बाज़ार तेरा ,
तेरे कामान्ध चक्षु खोलती ,मै
सभ्य समाज को पोषती ,
पीड़ा मेरी , मुझे कोसती ,
कब देवदासी बनी , अब मै वेश्या
तेरे सभ्य समाज की, मै 'वेश्या',
चरित्रहीन , कलंक न जाने क्या ?
- 'वरुण प्रताप सिंह'
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