Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बिकने लगे गाॅव के सपने शहरों की चैपालों में

 

खिलते नही कमल अब,इस सूखे गंदे ताल में ।
बिकने लगे गाॅव के सपने शहरों की चैपाल में ।।

 

 

सूनी सूनी है अमराई , अब न कोयल गीत सुनाती
छाॅव नदारत वृक्षों की , सूखी नदी नही इठलाती
न बोले अब कोई पपीहा टेर टिटहरी नही लगाती
भोर भये पनघट पर आकर ,न युवती गागर छलकाती
खेती भूले , पाती भूले लगे सियासी चाल में।
बिकने लगे गाॅव के सपने शहरों की चैपाल में ।।

 

 

होली के रंग फीके फीके अब न वैसी मने दीवाली
कहाॅ खो गई्रं परम्परायें , कभी रही जो गौरवषाली
अपनों से अपने अंजाने , उपवन लूट रहा है माली
कैंसे देहरी दीप जलायें अर्से से दिल जलें हैं खाली
संस्कृति पर गृहण लगा है आधुनिक जंजाल में।
बिकने लगे गाॅव के सपने शहरों की चैपाल में ।।

 

 

अंतर्मन में घोर निराशा, अब कहाॅ मिलेगा ठाॅव
बहकी बातें करे पवन अब ,बदल गया है गाॅव
सूरज बना आग का गोला ,खोज रहे हैं छाॅव
फैशन की सब भेंट चढे ,मेंहदी ,महाबर ,पाॅव
लक्ष्य कठिन तो होगा ही जब उलझे व्यर्थ सबाल में
बिकने लगे गाॅव के सपने शहरों की चैपाल में ।।

 


खेतों में उग रहे मकान , न पंछी ,न काग भगोड़ा
नये मषीनी युग में देखो शिथिल हुए हैं हाथ हथौड़ा
बनी समस्या जस की तस रहनुमा सो रहे बेच के घोड़ा
यक्ष पश्न ये बना हुआ है किसने गाॅव का सपना तोड़ा
मंहगाई से लड़ न पाते , उलझे रोटी दाल में
बिकने लगे गाॅव के सपने शहरों की चैपाल में ।।

 

 


• वेणीशंकर पटेल‘ब्रज’

 

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