Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हंसता अब घर द्वार नही है

 

मौसम खुशबूदार नही है।
हंसता अब घर द्वार नही है।।
थके थके से ये चेहरे
गिन रहे उम्र की वोझिल घड़िया
मेंहदी बाले हाथों में अब
पड़ती दहेज दानवों की छड़ियां
कैंसे नाविक हैं वो देखो,
हाथों में पतवार नही है।
हंसता अब घर द्वार नही है।।

 

 

नफरत की कसने आग लगाई
क्या पूछ रहे सहमी नजरों से
किसने गाॅव का मौन है तोड़ा
पूछो बड़े बड़े शहरों से
सुनो जरा आहिस्ता बोलो
बहरी ये दीवार नही है
हंसता अब घर द्वार नही है।।

 

 


• वेणीशंकर पटेल‘ब्रज’

 

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