मेरी ऑखों में
आज तक बसी है
गॉव की नदी
और नदी से जुड़ी हुईं
बचपन की स्मृतियां।
बरसात के मटमैले पानी में
नहाने के लिये
मना करती थी मॉ
तब हम चोरी छिपे
लगा आते थे डुबकी
कपड़ों को हवा में सुखाकर
कंघी से बालों को संवार
पहुॅच जाते थे घर
मां की आंखों को धोखा देकर।
ठंड के दिनों में
नदी की बालू रेत में
नहाने से पहले
खेला करते कबड्डी का खेल
और गर्मी में तपन मिटाने
घण्टों गहरे पानी में डूबे रहते
परन्तु अब
नदी में स्नान करना
संभव नही है
पतली होती जा रही है
नदी की धार।
भारी भरकम मषीनें
नदी का सीना फाड़
दिन रात निकाल रही हैं रेत
कारखानों का अवषिष्ट
बह रहा है नदी में
व्याकुल हैं मछलियां
फिर भी अपना अस्तित्व बचाने
संघर्ष कर रही है नदी
कभी खेतों को
तृप्त करने बाली नदी
आज स्वयं प्यासी है
उखड़ने लगी हैं उसकी सांसें
षायद दम तोड़ रही है
मेरे गॉव की नदी।
• वेणी शंकर पटेल ‘ब्रज’
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