नफरत के आसमां में
मोह्हबत का एक नूर
बरसों से चला आ रहा कोई
खूबसूरत दस्तूर
समंदर पार करा दे ,
जैसे कोई कश्ती
सबके दिलों में हैं जो बसतीं
जैसे आसमां का नीला रंग
जैसे किसी अपने का संग
धुरी वो जिसपर घूमे है धरती
जलते किसी दीपक की रोशनी
जो हर अँधेरे कोने में पहुँचती ,
कभी न रुकने वाले किसी शहर सी ,
खुशबू की एक लहर सी
कभी बच्चे सी मासूम
कभी अनुभवी सरीखी
रिश्तों के किनारे हैं
दरमियां उनके किसी पुल सरीखी
बुढापे की नही ज़िन्दगी की है जो आस
होती हैं जो माँ पापा की सबसे ख़ास .
देख ज़माने से हँस के कोई कहता है
ऐसी ही तो होती हैं बेटियाँ ,
हाँ ,कुछ ऐसी ही तो होती हैं बेटियाँ .
-विभूति चौधरी
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