उस आतंकवादी हमले के बाद की वो एक खामोश सुबह
सुबह कहना तो औपचारिकता है ,
ज़मीं पर अभी भी अँधेरा बिखरा पड़ा था
समां कुछ लाल था
उसे भी उन जानों के खोने का मलाल था ,
धर्म के मायने बदल गये थे ;
दो मुल्कों के नाते बदल गये थे
मन्त्रों और आयतों को भी ,
अपनी ही ग़लत व्याख्या पर नाराजगी थी
बीच में ही अटकी जो शान्ति वार्ता बाकी थी ,
पर उस घोर अँधेरे में भी वतनपरस्त जवान
रोशनी की सौगात थे ;
उस दिन अपनी साँसे आखिरी लेने वाले
वतन के लिए गर्व की बात थे
पर एक हमला कितनों को यतीम कर जाता है ,
यह कोई अखबार या कोई आंकड़ा कहाँ बता पाता है ,
वही खिलाफत की गोली कितनों पर चली थी ,
पर हकीकत तो यह है कि
उस दिन संवेदना भी मरी थी .
-विभूति चौधरी
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