अब किसी और घाट पर अपना तम्बू डालेंगे
ये कंगाल जगवासी मुझको क्या देंगे
जिसके लिए सागर पैंठ तक लगाई आवाज
ना सुबह देखी ना सांझ
अपनी यादों को जर्जर किया
उसने मुझको क्या दिया
क्यूँ गलफड़ चिल्लाऊ
कैसे पास उसके जाऊ
उसने अपनी मुसीबतें मुझको दई
चल रे बाशिंदे, विरह आ गई
कैसे उसकी तरफ नजर उठाऊ
कैसे पूंछूं क्या मैं आऊं
वो हर समय व्यस्त है
तन उसका अस्त्र है
बिखलाऊ उसके द्वारे
खड़ा फिर भी मस्त है
क्या तुम मेरे हो
या बने कोई बतेरे हो
तुम कुछ भी नहीं जलती एक सबेरे हो
उषाकाल शून्य भई
चल रे बाशिंदे, विरह आ गई
तुमको जग कहता है संगम
दिखता मुझको गम ही गम
मेरे लिए क्यूँ सजाया
कुरुक्षेत्र सा ये जंगम
शमशान क्यूँ जला है
कोई नहीं बचा है
ये किसकी सजा है
कोई मुझे बतलाये
क्यूँ पावाक जलवाए
ओझिन्द्र मेघ बरसा
तू बन सिंह सा गरजा
पीर क्यूँ दिलवाए
क्या रखा तेरा कर्जा
“आज़ाद “ उढ़ क्यूँ चिंतित है
जिन्दगी विरह का पर्याय बन गई
चल रे बाशिंदे, विरह आ गई
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