स्तब्धता को मसोसती
बूँद-बूँद
टपकते पानी की टप-टप
रसोई की साँस हो जैसे !
थाली में गरम रोटी परोसे
पुकार रही है प्रतिदिन
कई सालों से बार-बार
तुम्हारी प्यारी आवाज़ ।
जीभ पर स्वाद तो अभी भी है
तुम्हारी मलका-मसूर का,
तुम्हारे कोमल हाथों के खिलाए
मक्की की रोटी के कौर का ।
पड़ा है जहाँ-तहाँ, कब से
सभी कुछ यहाँ
यह पतीला, कलछी, यह थाल
तुम्हारी उपस्थिति के साथ ।
लेकिन दीवारों पर अब
सालों से लगी सीलन,
काँसे की कटोरी पर
कभी न उतरती कलौंस
और रसोई की हवा में फैली
सदैव निगरानी रखती
तुम्हारी चेतना का विस्तार,
अब यह सभी
चूल्हे से उठते धुएँ के संग
मेरी साँसों में घुल-घुल
मुझे छिन्न-भिन्न कर रहे हैं ।
माँ, आज बस एक दिन
तुम मुझको
हाथ में गरम रोटी लिए
इतने प्यार से न पुकारो,
और बस इतना बता दो
कि दूर उस परलोक में
तुम कैसी हो ?
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-- विजय निकोर
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