गतिमय प्रिय स्मृतिओं की बढ़ती बाढ़ की गति
ढूँढती है नए मैदानों के फैलावों को मेरे भीतर,
पर यहाँ तो कोई निरंक स्थान नहीं है छोटा-सा
कुछ भी और लिखने को...स्मृतिओं की नदी को
मेरे मृदु अंतरतम में तुम अब और कहीं बहने दो ।
स्मृतिओं की नदी के तल प्रतिपल हैं ऊँचे चढ़ते,
टूट चुके हैं कब से, ऊँचे से ऊँचे बंध भी अब
परिवृद्ध संगठित संख़्यातीत संकल्पों के सारे...
कि अब कब से अंगीकृत असंगतिओं से घिरा
मैं कभी कोई और नए संकल्प ही नहीं करता ।
पुराने संकल्पों में से उठती भयानक छटपटाहट
करती है विरोध अविरल, झंझोड़ती है मुझको,
कि मैंने उन मासूम संकल्पों के अदृढ़ इरादों को
क्षति से दूर, सुरक्षित क्यों नहीं किया,
पर इसमें भी तो परिच्छन है एक और असंगति...
अजीब असमंजस में हूँ कि सुरक्षित रखूँ मैं तुम्हारी
उन कोमल स्मृतिओं को, या इन संकल्पों को
जो उन स्मृतिओं को बेरहमी से मिटा कर
मुझको एक नए रिश्ते की बाहों से घावों पर
मरहम लगा कर
चिर-आतुर हैं ले जाने को मुझको दूर तुमसे,
कैसे समझाऊँ मैं इनको कि अब तक
मैं कितनी नुकीली नई चोटों और चुभन के बाद
प्रत्येक नए रिश्ते के
हर नए अनुभव से डरता हूँ ।
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-- विजय निकोर
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