तुम्हारी रुपहरी यादें
लौट आती हैं इस तरह
जैसे प्रतीक्षक पर्वत पर बादल !
बादल आ-आकर करते आलिंगन
शिलीभूत धीर शिख़र का,
पर्वत से लिपटे और पर्वत से
अलग भी,
बिखरे-बिखरे,
खेल-खेल में धूप-छाओं,
अभी उजाला, अभी अंधेरा करते,
माथा टकराते, बरस-बरस पड़ते ।
ऐसी बेमौसम बारिश में
जाग उठती है सोई सूखी मिट्टी
मेरे अन्दर
तुम्हारी खुशबू फैल जाती है
मुझको सराबोर करती
हँसती- हँसाती-रुलाती,
और मैं हर बार भीग-भीग
तुम्हारी बारिश में नहा लेता हूँ ,
मेरे स्वर गीले
गहरे उच्छ्वास
उच्छृंखल अश्रु
छलक-छलक आते ,
पर मेरी आँखों का सूनापन
फिर भी सूना !
नहीं जाता, नहीं जाता !
मैं कया करुँ ?
काश, वे बादल न बरसते,
पर्वत का आलिंगन न करते -
देते होले से हल्का-सा चुंबन
फिर लौट जाते, छोड़ जाते
कल फिर आने का वचन,
पुन: आश्वासन,
... विश्वास, और प्रत्याशा ।
..........
-- विजय निकोर
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