यही खयाल आता रहा, हम उसे
ठेलते रहे, वह लौट आता रहा,
आपके बहुत, बहुत पास थे हम,
अब आपके कहने पर आपसे
कुछ दूर हुए,
पर रहा न गया, फिर कुछ पास,
फिर आपसे दूर हुए।
यह प्रयास साँसों के आने-जाने-सा
तब से चलता रहा, बस, चलता रहा।
कौन किस सरलता को सह न सका,
कौन सत्यता का प्याला पी न सका,
कौन हम में कब-कब किस को
गलत समझा, क्यूँ समझा?
यही प्रश्न आ-आ कर हमें खलता रहा,
कभी हमें, कभी स्वयं को छलता रहा।
कितना कठिन है अब यह
स्वयं से झूठ बोलना,
जब आप से सच बोलना
सदैव कितना आसान था
हमारे लिए।
...............
-- विजय निकोर
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