असंभव के ढेर में संभव टटोलते
वर्षों से तुमको पुकारते कुछ ऐसे,
कभी इस टीले से,
कभी उस टीले पर खड़े,
या बिलखते-पुकारते
भीतर गहरे काले कूँए से।
उच्छृंखल सागर की उद्दंड लहरों पर
उछ्लते ख़यालों को रोक-रोक
स्वयं को टोक-टोक,
तट पर रेत के फिसलते कण
बटोरते, परखते,
सुबह-सुबह ओस...कि जैसे तुम्हारे अश्रु,
शाम के धुँधलके में क्षितिज को देख,
या, रात के काँपते सर्द गहरे अँधेरों में,
और हाँ, केवल यहीं नहीं,
अपने उस पहचाने दूर तक फैले
मैदान की गीली, उलटी-तिरछी घास पर,
किसी पुरानी लम्बी
अधूरी कहानी के नए टुकड़े-सा,
एक ही सवाल लौट-लौट आता है ...
" तुम कैसी हो ? "
वह सवाल आता है, मेरे सामने,बस
सिर ताने खड़ा रहता है,
मधुमक्खी की भनभनाहट-सा, कभी
भारी विस्फोट के उपरांत सन्नाटे-सा,
संवेदना और अनुकम्पा से मेरा हाथ
दबा-दबा कर
मैं जहाँ भी जाऊँ मुझको छलता है।
वह सवाल मेरे अंतरतम में
उबलता है, तड़पता है जैसे कि बिना
पानी के मछली,
और कभी भयानक-भयप्रद दानव-सा,
मुझको दूर ऊँचे टीले पर ले जा कर
पछाड़ देता है ।
मैं तब भी सुनता हूँ वही गूँज-अनुगूँज,
और सारी घाटी में वही गम्भीर ध्वनन ..
वही प्रश्न, एक वही प्रश्न...
" तुम कैसी हो ? "
" जहाँ भी हो,
तुम कैसी हो ? "
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- विजय निकोर
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