Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

फूलों-सी हँसती रहो

 

कई दिनों से तुम

टूटी कलम से लिखी कविता-सी

बिखरी- बिखरी,

स्वयं में टूटी, स्वयं में सिमटी,

अनास्क्त

अलग-अलग-सी रहती हो

कि जैसे हर साँझ की बहुत पुरानी

लम्बी रूआँसी कहानी हो तुम --

सूर्य की किरणों पर जिसका

अब कोई अधिकार न हो

और अनाश्रित रात की शय्या भी जैसे

उसके लिए हो गोद सौतेली ।

 


सुना है तुम रातों सो नहीं पाती हो,

रखती हो कदम, पेड़ों से छन कर आते

चाँदनी के टुकड़ों पर,

कि जैसे पतझर में सूखे पीले पत्ते

बिखरे हों आँगन में, और तुम

व्यथित, संतापी,

झुक-झुक कर बटोरना चाहती हो उनको

अपनी परिवेदना को उनसे

संगति देने,

पर वह सूखे पीले पत्ते नहीं हैं,

उखड़ी चाँदनी के धब्बे हैं वह

जो पकड़ में नहीं आते, और

तुम उदास, निराश, असंतुलित

लौट आती हो कमरे में,

अब भी सो नहीं पाती हो,

और ऐंठन में

पुराने फटे अख़बार-सी अरूचिकर

अनाहूत, अनिमंत्रित अवशेष रात को

सुबह होने तक ख़यालों में

मरोड़ती हो,

स्वयं को मसोसती हो ।

 


शायद जानता हूँ मैं,

और फिर भी सोचता हूँ, और सोचता हूँ

तुम टूटी कलम से लिखी कविता-सी

इतनी बिखरी- बिखरी क्यूँ रहती हो ?

 


मेरा मन कहता है तुम

हमेशा

फूलों-सी हँसती रहो !

 

 


.............

-- विजय निकोर

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ