तारों से सुसज्जित रात में आज
कोई मधुर छुवन ख़यालों की ख़यालों से
बिन छुए मुझे आत्म-विभोर कर दे,
मेरे उद्विग्न मन को सहलाती, हिलोरती,
कहाँ से कहाँ उड़ा ले जाए, कि जैसे
जा कर किसी इनसान की छाती से
उसकी अंतिम साँस वापस लौट आए,
और मुंदी-मुंदी पलकों के पीछे मुस्कराते
वह पुन: जीने का विशाल प्रस्ताव
स्वीकार कर ले।
पर यह अभिलाषा पूरी हो न सकी
प्रत्याशा की मुठ्ठी खाली थी,
किसी विधि भर न सकी।
प्राय: मेरे ख़याल सलिल समान तरल,
पक्षिओं की उपमेय उड़ान तो क्या
उड़ती हवा से भी अति-सूक्षम,
विक्षोभ और अवसाद के रंगों से रंजित,
संबल मेरा झकझोर जाते हैं,
तब कुनकुनी धूप भी मुझको
गरम सूईओं और सलाईओं-सी चुभती
दम घोटती-सी लगती है।
एकान्त के अकेलेपन में पल छिन
तर्क और तनाव में तारतम्य जताते,
उलझे ख़यालों की भूलभुलैंया सुलझाते
मैं इसी झुंझलाहट में उनको, कभी
परम मित्र और कभी घोर क्षत्रु समझ,
विचलित मन को जीने का मर्म समझा कर
या, फिर झूठी आस की थपकियाँ दे कर
सुला देता हूँ।
सिसकते मन में तब लौट कर नहीं आता
नहीं आता कभी भी लौट कर
वह अनचीन्हा पर अपेक्षित,
आशा-दीप-सा आभास,
वह एक ख़याल जो अंतरतम को दीपित कर दे,
मेरे जीवन की मांग में सिन्दूरी-सिंगार भर दे,
या बर्फ़-से ठंडे सन्नाटे में कब-से-जमे
अकेलेपन को पिघला कर उसे
होली या वसन्त के रंगों में रंग दे,
मेरे भीतर की छटपटाहट को बहका कर,
उल्लास और उन्माद की नदियाँ बहा दे।
कल की मैं क्या जानूँ कल तक,
मुझ को तो अभी आज से जूझना है,
आज तो लगता है जाने किसी ने जैसे
बंदी बना कर मेरे क्षत-विक्षत ख़यालों को,
कोमल भावनाओं और उनकी अभिव्यक्ति को,
सूली पर चढ़ा दिया,
पैरों तले से तख़्ता हटा दिया, पर
फंदे को न कसा,
मुझको आजीवन ख़यालों के फंदे में
यहाँ लटकता छोड़ दिया।
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-- विजय निकोर
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