मैं
पूर्ण-विराम,
एक बहुत छोटी-सी लकीर,
बिना शब्दों के हूँ अर्थहीन ।
पर किसी भी पंक्ति के अंत पर पड़ा,
संतरी- सा तन कर खड़ा,
अति शक्तिमान, महत्वपूर्ण, और
प्रभावशाली हो जाता हूँ ।
मैं...
पूर्ण-विराम ...
मेरी अनुपस्थिति में किसी भी लेख के भाव
संशयग्रस्त और संतप्त
तिलमिलाते हैं,
तड़पते हैं स्पष्टीकरण के लिए,
और उनके मान्य, मात्र टूटे धागों की तरह,
उलझ-उलझ जाते हैं ।
बिना विराम-चिन्ह के वे वाक्य
अपनी अज्ञात अदृश्य सीमायों से अनभिज्ञ,
वे अनबूझ अनभिव्यक्त सभी
अशिष्टता से परस्पर झगड़ते हैं ।
तब अपनी इस स्थिति में वे बुलाते हैं मुझे,
और मैं पूर्ण-विराम
संतरी की उपाधी लिए
व्यवस्थापक बना चला आता हूँ ।
मैं, एक पूर्ण-विराम !
लेख में जगह-जगह पर खड़ा
उन उलझे झगड़ते वाक्यों को प्रथक करता
स्वयं गर्ववंत अनुभव करता हूँ ।
हंगामा बंद हो जाता है, शब्दों में, वाक्यों में
मित्रवत सम्बन्ध लौट आता है,
और उनकी जीवितता का आभास
मेरे जीने का अर्थ हो जाता है ।
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-- विजय निकोर
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