तुम !
तुम्हारा आना था मेरे लिए
जीवनदायी सूर्य का उदित होना,
और तुम्हारा चले जाना था
मेरे यौवन के वसंतोत्सव में
एक अपरिमित गहन अमावस की
लम्बी कभी समाप्त न होती
विशैली रात ।
मुझको लगा कि जैसे मैं
बिना खिड़्की, किवाड़ या रोशनदान की
किसी बंद कोठरी में बंदी थी, और
उस लम्बी घनी अमावस का सारा अँधेरा
किसी ने समस्त समेट कर
मेरी इस ग़मगीन कोठरी में भर दिया था ।
ऐसे में किसी भी स्थिति में जाने क्यूँ
मैं संतुष्ट नहीं रह पा रही --
पहले मैं सूर्य की किरणों की (तुम्हारी)
उष्मा के तेज को सह न सकी,
और अब अपने हँसते दुखों के बीच
इस बंद कोठरी के अँधेरे की ठंडक में
मैं बुत-सी बैठी ठिठुर रही हूँ ।
तुम्हारी तो आदत थी न, हर बात का
सूक्षम विश्लेषण करने की ,
यह "सही", यह "गलत", यह "कुछ नहीं"
यूँ ही हर बात को जानने की,
और जब पूछा जो मैंने तुमसे
कि मैं किस श्रेणी में आती हूँ,
और तुम .... तुम बस चुप रहे
उसी एक पल में मुझको लगा कि
नज़रों में तुम्हारी मैं अब
मात्र शीर्षकहीन पंक्ति के अतिरिक्त
कुछ नहीं रही।
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-- विजय निकोर
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