लगता है यूँ कभी मेरी परिमूढ़ परछाईं
मेरी सतही ज़िन्दगी के साथ रह कर
अब बहुत तंग आ चुकी है।
अनगिन प्रश्न-मुद्राएँ मेरी
सिकुड़ कर, सिमट कर पल-पल
मेरी परछाईं को आकार देती
किसी न किसी बहाने कब से उसको
अपने कुहरीले फैलाव में बंदी किए रहती हैं
जिसके धुँधलके में वह अब अपना
अस्तित्व खो बैठी है, और ऐसे में वह मुझको
अजनबी-सी
परेशान निगाहों से देख रही है।
समस्याओं की अन्धियारी गलियों में मैंने
जब-जब ठोकर खाई
मेरी परछाईं मेरी सहचर बनी,
उसने भी ठोकर खाई,
मैं गिरा, वह मेरे साथ थी गिरी।
बीते रिश्तों की पुरानी, सीलन लगी,
गुहाओं से पानी-सा टपक रहा दर्द था,
मैंने पीया और मेरे संग इसने भी पीया,
मेरे सुनसान बियाबान-से इतिहास को पल-पल
मेरे संग चल-चल कर इसने भी जीया ...
ऐसा साथ तो कभी किसी और ने मुझको
आज तक कभी नहीं दिया।
पर अब वह परछाईं मेरे उठने-गिरने के इस
अर्थहीन तन्तुजाल से तंग आ चुकी है।
मेरी भूलों से क्षुब्ध मेरी परछाईं को
अफ़सोस है गहरा, और
मुझको एक और चोट के लगने के डर से
मुझसे पहले
चिन्तित, किसी अजीब-सी फ़िक्र में वह
छटपटा रही है।
ऐसा पहले भी कई बार हुआ है
फिर भी हर बार वह मेरे साथ रही है,
पर आज इस बार की बात कुछ और है ...
अब, अब वह मेरी सतही ज़िन्दगी से
सच, बहुत, बहुत तंग आ चुकी है।
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-- विजय निकोर
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