तुम मेरे संतृप्त स्नेह की शिल्पकार
जैसे भी चाहो तराशो इसको,
नाम दो, आकार दो, ..... पर
शब्द न दो,
कि शब्दों में छिपे होते हैं भ्रम अनेक,
छंटता है इनसे अनिष्ट छलावा,
शब्द छोड़ जाते हैं छलनी मुझको,
प्रिय, मैं अब स्नेह से नहीं
स्नेहमय शब्दों से डरता हूँ ।
आओ, बैठो पास, और पास मेरे,
कहो -- कहो न शब्दों से कुछ,
कहो, पर जो कहना है तुमको
बस, मंद्र मौन को कहने दो --
कि शब्दों से कहीं बढ़ कर
सच, अलंकृत होगा यहाँ पर
मौलिक मार्मिक मौन से, प्रिय
अनुरक्त भावनाओं में अनुरंजन,
स्निग्ध आकांक्षायों में उत्परिवर्तन ।
तुम कभी मुझको ग़लत न समझो,
आँख की पुतली-सा प्रिय है मुझको
सौम्य सुकुमार संचेय स्नेह तुम्हारा ।
जो होता केवल एक ही अर्थ
तो मैं न डरता, न डरता,
सह लेता,
पर यहाँ तो प्रिय
प्रत्येक शब्द के हैं अर्थ अनेक --
हो सकता है कि तुम कहो कुछ
और मैं समझूँ उसका
अर्थ कुछ और ।
इसीलिए प्रिय,
अब मैं शब्दों से नहीं
शब्दों के प्रकरण से डरता हूँ ।
तुम, मेरे स्नेह की प्रशंसनीय शिल्पकार
यह मेरी एकमात्र अनुनय विनय है तुमसे
मुझको अब कुछ और शब्द न दो आज,
तुम स्नेह को अपने मौन में पलने दो ।
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-- विजय निकोर
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