Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मुझको

 

दूर रह कर भी तुम सोच में मेरी इतनी पास रही,

छलक-छलक आई याद तुम्हारी हर पल हर घड़ी।

पर अब अनुभवों के अस्पष्ट सत्यों की पहचान

विश्लेषण करने को बाधित करती अविरत मुझको, कि

"पास" हो कर भी तुम व्यथा से मेरी अनजान हो कैसे,

या, ख़्यालों के खतरनाक ज्वालामुखी पथ पर

कब किस चक्कर, किस चौराहे, किस मोड़ पर

पथ-भ्रष्ट-सा, दिशाहीन हो कर बिखर गया मैं

और तुम भी कहाँ, क्यूँ और कैसे झर गई

मौलसिरी के फूलों की कोमल पंखुरियों-सी ऐसे !



सच है, मेरे ख़्यालों के ब्रह्मांड को दीप्तिमान करती

मन-मंदिर में मधुर छविमान स्नेहमयी देवी हो तुम,

तुम आराध्य-मूर्ती हो, पूजता हूँ तुमको,

पर ... पर मैं तुमको पहचानता नहीं हूँ,

क्योंकि

तुम दर्शनीय देवी सही, पर तुम "वह" नहीं हो ।



तुम्हारी अन-पहचानी दिव्य आकृति तो ख़्यालों में

मेरे ख़्यालों के शिल्पकार ने रातों जाग-जाग,

काट-छांट कर, छील-छील कर, जोड़-जोड़ कर

अपनी कलात्मक कल्पना में गढ़ी है ।

कभी इस परिवर्तन, कभी उस संशोधन में रत

इस शिल्पकार से अब बड़ी खीझ होती है मुझको,

कि मुझको उसकी काल्पनिक देवी की नहीं,

मुझको तो आज केवल तुम्हारी ज़रूरत है ...

 


तुम, जो सरल स्वभाव में पली, हँस-हँस देती थी,

बात-बात में बच्चों-सी शैतान, चुलबुली,

तुम ... जो मुझको लड़खड़ाते-गिरते देख

इस संसार से सम्हाल लेती थी,

लड़फड़ाता था मैं तो हाथों मे मेरे हाथों को थामे,

ओंठों से अकस्मात उनकी लकीरें बदल देती थी,

मेरी कुचली हुई आस्था की संबल थी तुम ...

मेरी उदास ज़िन्दगी के सारे बंद दरवाज़े खोल,

प्यार की नई सुबह बन कर

मेरे भीतर के हर कमरे, हर कोने में इस तरह

मुस्कराती रोशनी-सी बिछ जाती थी तुम !



तुम ... मेरे जीवन की चिर-साध, कहाँ हो तुम ?

नीरवता से व्यथित, व्याकुल, उदास हूँ मैं,

मुझको देवी की नहीं, तुम्हारी ज़रूरत है ।

 

 

 

-------

-- विजय निकोर

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ