आज जब दूर क्षितिज पर मेघों की परतें देखीं
लगा मुझको कि कई जन्म-जन्मान्तर से तुम
मेरे जीवन की दिव्य आद्यन्त "खोज" रही हो,
अथवा, शायद तुमको भी लगता हो कि अपनी
सांसों के तारों में कहीं, तुम्हीं मुझको खोज रही हो।
कि जैसे कोई विशाल महासागर के तट पर
बिता दे अपनी सारी स्वर्णिम अवधी आजीवन,
करता अनायास, असफ़ल प्रांजल प्रयास,
कि जाने कब किस दिन कोई सुन ले वहाँ
विद्रोही मन की करुण पुकार दूर उस पार।
अनन्त अनिश्चितता के झंझावात में भी
मख़मल-से मेरे खयाल सोच में तुम्हारी
सोंप देते हैं मुझको इन लहरों की क्रीड़ा में
और मैं गोते खाता, हाथ-पैर मारता
असहाय, कभी-कभी डूब भी जाता हूँ
कि मैंने इस संसार की सांसारिकता में
खेलना नहीं सीखा, तैरना नहीं सीखा।
काश कि मेरे मन में न होता तुम्हारे लिए
स्नेह इतना,इस महासागर में है पानी जितना,
कड़क धूप, तूफ़ान, यह प्रलय-सी बारिश भी मैं
सह लेता, मैं सब सह लेता समतल सागर-सा।
उछलती, मचलती, दीवानी यह लहरें मतवाली
गाती मृदुल गीत दूर उस छोर से मिलन का
पर मुझको तो दिखता नहीं कहीं कुछ उस पार,
सुनो, तुम .... तुम इतनी अदृश्य क्यूँ हो ?
तुम हो मेरे जीवन के उपसंहार में
मेरी कल्पना का, मेरी यंत्रणा का
उप्युक्त उपहार।
इस जीवन में तुम मिलो न मिलो तो क्या,
जो न देखो मे्रा दुख-दर्द, न सुनो मेरी कसक
और न सुनो मेरी पुकार तो क्या,
कुछ भी कहो तुम, नहीं, मैं नहीं मानूंगा हार।
कि तुम हो मेरे जन्म-जन्मांतर की साध,
मेरे जीवन के कंटकित बयाबानों के बीच
मेरे अंतरमन में जलता रहा है तुम्हारे लिए,
केवल तुम्हारे लिए, दिव्य दीपक की लो-सा,
सांसों की माला में पलता हँसता अनुराग,
और जो कोई पूछे मुझसे कि कौन हो तुम,
या,क्या है कल्पनातीत महासागर के उस पार,
तो कह दूंगा सच कि इसका मुझको
कुछ पता नहीं,
क्योंकि मैं आज तक कभी उससे मिला नहीं।
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-- विजय निकोर
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