तुम्हारा अंकुरित स्नेह सुकुमार
ज्यों अकलंकित आकाश
ने फेंक दिए सितारे सारे
मेरी झोली में आज,
और फिर भी मैं डरा-डरा-सा खड़ा रहा
कटु अनुभवों की भीड़ में,
अतीत की टीस में अनवरत डूबा रहा।
टीस की ठिठुरन घबराई-सी
दुबकी पड़ी थी,
जाले लगे कितने अंतरस्थ कोनो में
गए रिश्तों के बर्फ़ीले दर्द थे जमे पड़े,
अब नये स्नेह की उत्कर्षक उष्मा से
शनै: शनै: थे पिघल रहे ।
हर दर्द के रंग थे चाहे अतिशय परिचित
नाज़ुक नये रिश्ते के छूट जाने का भय,
मैं इस डर से डर रहा था, ठिठुर रहा था,
अत: करता रहा उसे स्वीकारने से इनकार,
निरर्थक भीतर ही भीतर मैं कब से
बस, था गल रहा ।
कंटकित कराह दाबे, ... मौन मेरा
ठिठुरता रहा
उस पिघलते दर्द के फैलते तालाब में,
चिंतित तैरती कराह जो इतनी अपनी थी
पर रही सदियों से बे-आवाज़ ...
अब मुझसे रहा न गया, रहा न गया,
उस मूक कराह को मैंने दे दी "आवाज़", और
हर बिखरे दर्द के बिखरे रंगों को बटोरती
उस आवाज़ में मुझको लगा --
विक्षुब्ध गरम-गरम अश्रुओं से अब
मेरी आत्मा थी गीली, और तुम्हारी
उच्छवसित उपस्थिति में सराबोर
मैं धुल चुका था ।
मेरा नया निडर अस्तित्व, भार-मुक्त
तुम्हारे सम्मुख था खड़ा अब हँस रहा,
और
इस सारे होने और न होने के बीच
तुम संवेदनशील
साक्षी बनी मुस्कराती रही,
स्वर-गीत तुम्हारे, संजीवनी-से,
दे रहे थे प्राण-धन
मेरी कब से भटक रही आस्था को,
अब दे गए नवोदित अत्युत्त्म
पुनर्जन्म !
........
-- विजय निकोर
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