कल
मैं सो न सका सारी रात
यही सोचते-सोचते, कि शायद
तुम भी सो न सकी सारी रात
मुझको सोचते-सोचते ।
तुम कहती थीं
न सोचूँ मैं तुमको इतना
पर तुम कयूँ सोचती हो मुझको
इतना कि अपने हर ख़याल पर
मानो मुहर लगा देती हो मेरी ।
किसी भी किताब को पढ़ती हो तो
हर पन्ने पर चिपक जाता है ख़याल मेरा,
हर पन्ने को तुम मोड़ती चली जाती हो,
और फिर सारी की सारी पुरानी किताब
को मुड़ा हुआ देख, बहुत ही खीज पड़ती हो ।
कुछ पुराने पन्नों के कोने
मुड़ते ही टूट जाते हैं
और तुम सोचती हो
हम तो अविभाज्य थे, फिर ऐसे
मुड़े पन्नों-से, हम टूट गए कैसे ?
समय तो किसी के लिए भी रुकता नहीं
फिर मुझको सोचते-सोचते
तुम्हारी रात
कमरे की दीवार से, छत से क्यूँ
कैसे चिपक-सी जाती है ?
मैं भी तुमको सोचते-सोचते
जागती रात की ज्वालाओं में
कुछ यही सोचता हूँ,
और रात का दम घोटता तनाव
मेरी सिमटी साँसों में उतर आता है ।
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-- विजय निकोर
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