भोर की अप्रतिम ओस में धुली
निर्मल, निष्पाप प्रभात की हँसी-सी
खिलखिला उठती,
कभी दुपहर की उष्मा ओढ़े
फिर पीली शाम-सी सरकती
तुम्हारी याद
रात के अन्धेरे में घुल जाती है ।
निद्राविहीन पहरों का प्रतिसारण करती
अपने सारे रंग
मुझमें निचोड़ जाती है,
और एक और भोर के आते ही
कुंकुम किरणों का घूँघट ओढ़े
शर्मीली-सी लौट आती है फिर ।
कन्हीया की वंशी-धुन में समाई
वसन्त पँचमी की पूजा में सरस्वती बनी,
शंभुगिरि के शिख़र पर पार्वती-सी,
मेरे लिए
तुम वीणा में अंतर्निहित स्वर मधुर हो ।
हर आराधना में है तुम्हारा
विमल नाम अधर पर,
मेरी अंतर्भावना में मुझे तो लगता है
पिघलते हिमालय के शोभान्वित शिख़र से
पावन गंगा बनी
तुम धरती पर उतर आई हो ।
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-- विजय निकोर
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