सोचता हूँ, चबूतरे पर बैठी
अभी भी क्रोशिए से तुम
कोई नाम बुनती हो क्या ?
....इसका मतलब ?
तो, "क्या" नाम बुनती होगी ?
या, कोई नाम नहीं,
रिक्तता,
बस रिक्तता
बुनती चली जाती होगी स्वयं
तुम्हारे सुकोमल हाथों से ।
तुम्हारी विपन्न वेदना, बस
बहती चली आती होगी,
तुम्हारे व्योम-मंडल से ...
" तुम्हें " छूए बिना
तुम्हारी उँगलियों से स्वैटर में ।
वैसे ही, जब कुछ कहे बिना
बिना ईंटों की दीवारों को फाँद-फाँद कर,
आँचल से मात्र हवा के झोंके को हिला कर
कितना कुछ कह देती थी तुम
मेरे लिए.....
और वह झोंका आकर ख़्यालों में मुझे, विनम्र
बता देता था तुम्हारी आप-बीती ....
तुम्हारी ठिठुरती रातों की सिकुड़ती
पैनी परिभाषा
तुम्हारी निद्रा-विहीन दुखती आँखों
में ठहरी खुरदुरी सिकता !
कैसे धो लेती थी तुम उन आँखों को
सहज याद करके कोई स्वप्न मीठा,
जो कभी पूरा न भी हुआ तो क्या ...
आया तो सही !
मैं भी तब सह लेता था उस सपने का
सहज आविर्भाव,
पर अब, अब नहीं, ... अब नहीं ।
सुनो, तुम अब कृपया
क्रोशिए से बुनना बंद कर दो न !
.............
- विजय निकोर
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