तुम्हारा मेरा साथ
एक आत्मिक यात्रा,
तुम्हारा संतृप्त स्नेह
दिव्य उड़ान
और अब तुम्हारा अभाव भी
एक आध्यात्मिक साधना है
जो मेरे अन्तर में प्रच्छ्न्न,
मंदिर में दीप-सी
और मंदिर के बाहर
सूर्य की किरणों-सी
मेरे पथ को सदैव
दीप्तिमान किए रहती है ।
हमारे इस अभौतिक पथ पर
कोई पगडंडी पथरीली,
कोई कँटीली,
चढ़ाव और ढलान --
एक दूसरे का सहारा लिए
हम कभी फिसले नहीं थे ।
काँटों की चुभन भी तब
अच्छी लगती थी
और पत्थर भी
हमें पत्थर नहीं लगते थे ।
किसी रहस्य से विस्मित करती
हम दोनों को बाँधे रही वह यात्रा,
और हम बंधे रहे संपृक्त
युगान्तक तक,
सामाजिक संविधान से संविदित,
प्रचण्ड आँधी के आने तक,
बिजली के गिर जाने तक,
जलते पेड़ों के अंगारे
बुझ जाने तक
और अब कोई आँधी नहीं,
बिजली नहीं,
उन अंगारों की ठंडी
राख भी नहीं...
बस है विधि की विडंबना,
जो भौतिक अभाव में भी
आत्मिक स्तर पर
मुझको बाँधे रखती है तुमसे ।
हमारी वह निष्कलंक यात्रा
मेरे ख़्यालों में संनिष्ट,
जो विदित थी केवल हम दोनो को,
अब देवता भी झुक-झुक कर उसका
करते हैं अनुमोदन,
तुम्हें प्रणाम करते हैं,
और मैं मन-मंदिर में मुस्कराता
अपने ख़्यालों के झरोखों में
तुम्हारे माथे पर टीका
और माँग में
सिन्दूर भर देता हूँ ।
...............
-- विजय निकोर
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY