Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वो सुबह,वो शाम कहाँ

 
वो सुबह,वो शाम कहाँ!
शहर में तो आराम कहाँ।
वो सुबह की चिल-चिलाहट,
पेड़ पतियों की झिलमिलाहट,
झरनों की झर-झर आहत,
कोयल की कुकू-आहट कहाँ।
शहर में तो आराम कहाँ।
जब गाँव की ओर ध्यान धरता हूँ।
तो आलिंगन में लीन प्रकृति,
जब अपने वास्तविक परिवेश में आती है।
और षषक, मूस,गिलहरी,कबूतर,
घम-घूम के कण खाते है।
वन के जीव विवर से बाहर हो विचरते हैं।
तो, मन में एक भाव सा जगता है!
 गाँव धरती का स्वर्ग सा लगता है।
जगत में और ऐसा कहाँ हो सकता है,
चंद्रमा,आकाश,तारा पृथ्वी को छू सकता है।
क्या शहर में यह दृश्य साफ-साफ दिख सकता है।
वो सुबह,वो शाम कहाँ हो सकता है।
शहर में तो आराम कहाँ हो सकता है।

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