जो चट्टान पड़ी बाधा की ,
मैंने उसको काट लिया ,
तोड़-तोड़ कर स्वयं गिटि्टयाँ
प्रगति पंथ को पाट लिया ।
मैंने पैर बढ़ाये पथ पर ,
आई सम्मुख बाधा दौड़ी ,
चली लेखनी तब यों उस पर ,
ज्यों प्रस्तर पर चले हथौड़ी ,
अपना पंथ बनाया मैंने ,
जग का श्रम भी बाँट लिया ।
जो बाधाएँ पड़ी रेत सीं ,
पग भी जिसमें धँस-धँस जाते ,
ऊपर गिरता बज्र गगन से ,
नीचे शेषनाग डस जाते ,
चला फावड़ा सदृश लेखनी ,
सारा कद॑म छाँट लिया ।
जो आई खाई सी सम्मुख ,
वृहद विषम अति ऊँची नीची ,
मानचित्र सा बना हृदय में ,
मैंने कुछ रेखाएँ खीँचीं ,
हल सी चला लेखनी, जोता ,
क्षण में बना सपाट लिया ।
जो बाधा आई टीले सी ,
पग से उसे गई लुढ़काती ,
गेंद सदृश ही चली खेलती ,
सदा गीत को लक्ष्य बनाती ,
लघु टीले को भी मंज़िल तक ,
लाकर बना विराट लिया ।
बाधाओं को बनी कठिनतर ,
बाधा एक असाध्य स्वयं मैं ,
बनी प्रकाश प्रखर अपने ही ,
पथ पर बिछे घनेरे तम में ,
जो भी भँवर पड़ी भव सर में ,
बना उसे भी घाट लिया ।
Vijailakshmi Vibha
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