Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नेह के दाने

 

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देहरी पर -
फुदकती चिड़िया।
चुगती -
नेह के दाने।
उड़-उड़ जा बैठती
छत की मुंड़ेर पर।
ढूँढ़ती -
शिशुओं का कलरव।
पायल की रुनझुन।
चूड़ियों की खनक।
चहकता आँगन।
आँगन की बैठकी।
बड़ों का प्यार।
माँ की मनुहार।
दादाजी का दुलार।
और -
घर के कोने-कोने से
नि:सृत -
निश्छल स्नेह की फुहार।
परंतु -
अब सुनाई देती है
सिर्फ -
बूढ़ी दादी की ख़ाँसी
की आवाज
घर के सन्नाटे में।

 

अब
ढलती शाम के साथ
छतों पर
नहीं मिलते
घरों से निकले
स्नेह के बादल।
कहाँ जुटती है अब -
नीम तले की चौपाल!
बंद हो गया -
जमुनिया फुआ का
घर-आँगन घूम-घूम
गाँव भर की कहानियाँ
बाँचने का
अंतहीन सिलसिला भी!
शायद -
कहीं खो गयी है -
परिवारों की परंपरा।
संस्कारों की सीख।
स्नेह की शीतल छाँव।
फागुन की रंगमंडली।
दशहरे की नौटंकी।
और -
ग्रामीण एका !
क्या -
निगल लिया है इसे
इस -
पश्चिमोन्मुख संस्कृति ने ?
यह -
संस्कृति का
क्षरण है ?
या
रूपांतरण?

 

चिड़िया -
विह्वल।
विचलित।
ढूँढ़ती -
भोर के पहरुओं को।
नेह के दाने तलाशती।
उदास फुदकती -
इस देहरी से उस देहरी !
इस मुंड़ेर से उस मुंड़ेर !

 

 

 

- विजयानंद विजय
" आनंद निकेत "

 

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