ख़िज़ां के रखवाले बाग में बहार आने नहीं देते,
मेरे गुलशन के ख़ार ताजी हवा लाने नहीं देते।
वो एक नज़र देख लेते मेरे बिगड़े हालात को,
तो बदलते मौसम गमों के बादल छाने नहीं देते।
काश उनके पास वक़्त होता आँखों में देखने का,
तो मेरे अश्क उन्हें बेरुखी से जाने नहीं देते।
अँधेरा बहुत है तुम्हारे दिल की बस्ती में,
क्यों दिल में कोई जोत जलाने नहीं देते।
तुम्हें पाने का जुनून दिल पर सवार तो है मगर,
तुम ख़ुद को खोने नहीं देते, हमें पाने नहीं देते।
सिलसिला थम जाएगा इश्क़ से नाराजगी का,
नफ़रत की ये दीवार क्यों गिराने नहीं देते।
हमारी बोलचाल इस हद तक बंद है,
दिल से दिल को भी बुलाने नहीं देते।
बुनियाद इस घर की खोखली हो चुकी है,
तुम यह जर्जर मकान क्यों गिराने नहीं देते।
विनोद कुमार दवे
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