Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

ये तेरे ही गुनाहों का साहिल है

 

अब हमें यह फिक्र नहीं कि वो रूठ जाएगी ,
ये पागल मछली समन्दर से दूर कहाँ जाएगी।

 

किनारों पर मछेरों के जाल पड़े हैं फैले हुए,
फंस गई तो चाह के भी न लौट पाएगी।

 

उसे अपने हुस्न का गुरूर है हमारे ख़ता से,
हमारी ग़ज़ल में लफ्ज़ बन तैरती नजर आएगी।

 

बहुत मना लिया उसने मुझे छल कपट फरेब से,
हम जो रूठे इस बार तो देखती रह जाएगी।

 

मेरी नज्मों में उसकी छाया मौजूद रहेगी ताउम्र,
नाम मिटा तो गुमनामी के अंधेरों में खो जाएगी।

 

ये तेरे ही गुनाहों का साहिल है 'दवे' मत डर,
उसकी जवानी तेरे आंसुओं में डूबती नज़र आएगी।

 


विनोद कुमार दवे

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ