सर पे धर ज़मीर हो अधीर तू किधर चला
आस्था को चीर हे मनुष्य तू किधर चला
बनने पर तुला है क्यू इन्सान से शेतान तू
बनना चाहता अगर तो बन जाता भगवान तू '
मनुष्ये धर्म भूल कर हे मानव किधर चला
आस्था को चीर हे मनुष्य तू किधर चला
क्यू दुसरो के पग चिनो पे चल पड़ा निर्बुद्ध तू
मारने जिसे चला हे बेशरम वो खुद है तू
अपनी आत्मा को मार कर मनु किधर चला
आस्था को चीर हे मनुष्य तू किधर चला
सर पे तेरे किस तरह का ये जनून सवार है
ये केसी दोड़ है जहाँ पे चैन न करार है
मन में भर ये केसी है उडान तू किधर चला
आस्था को चीर हे मनुष्य तू किधर चला
अपने मन की कहे मनु दुसरे की तू समझ
है मानव तो दुसरे को भी मनु ,मनु समझ
मानव होके मानव जला मनु किधर चला
आस्था को चीर है मनुष्य तू किधर चला
विनोद कुमार खबाऊ
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