क्या करूॅं कि व्यथा अपनी छुपा नहीं सकता
दुखी हूॅं बहुत पर किसी को बता नही सकता
आग लगे जब सागर में तब गागर से बुझाऊॅं क्या।
धूॅं-धॅंू कर जो जल रहा उसे चिगांरी दिखाऊॅं क्या ।।
काॅंटे चुभे है दिल में कितने गिना नहीं सकता।
दुखी हूॅं बहुत पर किसी को बता नही सकता।।
हॅंस चला जब कौवे कि चाल तो कौवे को सिखाना क्या।
शेर फॅंसा है मकडी के जाल में वक्त का देखो ठिकाना क्या।।
दर्द सुने है मैंने जितने वो सब सुना नहीं सकता।
दुखी हूॅं बहुत पर किसी को बता नही सकता ।।
खेल बना जब जीवन सबका आन का ध्यान दिलाऊॅं क्या।
दीप जले जब अज्ञानी से ज्ञान का मान सिखाऊॅं क्या ।।
दीये तले अन्धियारा है जो उसे मिटा नहीं सकता।
दुखी हूॅं बहुत पर किसी को बता नही सकता ।।
करूॅं मैं क्या और जाऊॅ कहाॅं बड़ी कश्म-कश में हॅंू।
चारों ओर है दर्द के महारथी मैं उनके बीच में मैं हॅूं।।
चक्रव्यूह में मैं फसा पाण्डवं को बुला नही सकता।
दुखी हूॅं बहुत पर किसी को बता नही सकता ।।
विनोद कुमार खबाऊ
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