तुम्हारे दिल के मकाँ सा सूकूँ और कहाँ,
वहीं पर आजकल रहते हैं हम बेफिक्र होकर|
इन्तजार है इज्हार-ए-मोहब्बत का तुमको,
तभी तो गैर से रहते हो हमसे मित्र होकर||
दिल तो चाहता है तू जिगर के पास रहे,
मग़र बढ जाती है धड़कन क्यों जानें तीब्र होकर|
अगर है प्यार तो ये दूरियाँ नहीं जायज़,
ना बैठ भाग्य की दहलीज़ पर बेफिक्र होकर||
ताज़-ओ-तख्त की वो माँग क्या करे "निर्भय"
नाम गुज़रा हो जिसका लब से तेरे जिक्र होकर|
~ विनोद यादव "निर्भय"
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY