जब शासक के संवादों में निर्भय राक्षस की छाप मिले|
जब क्रुर के सिर पर ताज नम्रता को जीवन अभिशाप मिले||
जब स्वार्थ-सिद्ध के अहंभूत समर्थ शक्ति दिखलाता है|
जब लोभ की लंका पलती है,वैभव रावण ले जाता है||
जब सत्ता के गलियारों से मुरली की तान गुज़रती है|
एक बनवासी के बाण देख दंभी की दशा बिगड़ती है||
कर सृजन स्वयं आत्मा अपनी ईश्वर विधान जब रचता है|
तब कंस हिरण्य या खुद रावण मरनें से कहाँ वो बचता है||
~ विनोद यादव "निर्भय"
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