Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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न ज़मी पे मिलें और ना आस्माँ पे मिलें

 

न ज़मी पे मिलें और ना आस्माँ पे मिलें
फकत एक चैन चाहिये...पर कहाँ पे मिलें

 

 

मुझे एक बिछुड़े हुए शख्स की....तलाश है
पता मिलें तो पहुँच जाऊँ वो जहाँ पे मिलें

 

 

रात होती है तो यूँ लगता है रोज़ मुझको
तेरी ज़ुल्फों का पता आज आस्माँ पे मिलें

 

 

कि जैसे सीपियों में मोती संभाल रखे हो
तेरी आँखों सी कोई बला अब यहाँ पे मिलें

 

 

मैंने बहारो में लाखो फूल खिले देखे है
पर तेरे लबो‍ रुखसार से गुल कहाँ पे मिलें

 

 

तू बोलती थी तो मिश्री घुली लगती थी
वैसे मिठास अब काश किसी जुबाँ पे मिलें

 

 

तेरी गर्दन में सजते थे तब बात और थी
हीरे मोती में वो चमक अब कहाँ पे मिलें

 

 

तेरी बदन के तराश याद है मुझे अब भी
फूल कहते चोली ऐसी हमे भी यहाँ पे मिलें

 

 

अन्धेरी रातों में चाँद सितारे संग मुझको
तेरा काला दुपट्टा उछला सा आस्माँ पे मिलें

 

 

तेरी बलखाती कमर की बात ही और थी
लचक जाते थे दिल तू जिसे जहाँ पे मिलें

 

 

तेरी मदहोश चाल के दीवाने तो ओ बेखबर
ठुमकते थे तेरे पीछॆ भी....तू जहाँ पे मिलें

 

 

तेरी पायल मुझे मन्दिर की घंटियों सी
गूँजती लगती थी कि अब वो कहाँ पे मिलें

 

 

चाँद सितारों से बता तेरा क्या नाता था
तेरी जूतियों में लिपटे वो यहाँ पे मिलें

 

 

सारे हसीनो अब सब खुश हो भी जाओ
वो नामिलें तो..आप सब तो यहाँ पे मिलें

 

 

लेकिन सवाल वही है विपुल कहाँ पे मिलें
वो पुराना वाला चैनो सुकूँ अब कहाँ पे मिलें.....विपुल त्रिपाठी..

 

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