परेशां रहते थे कभी दिले-बेकरार के साथ
पता ना पहचान कुछ ना था यार के साथ
पहले पहले की मोहब्बतें......याद तो कर
जब बढ़ जाती थी धड़कने दीदार के साथ
चुप रहना शर्मो लिहाज में उसके सामने
और कोसना फिर ख़ुद को,इंतज़ार के साथ
ऐसी ग़ज़ल तो आज तक फिर पढ़ी नही
जो होती थी उन नजरों के तकरार के साथ
शायद वो दिख जाए कही किसी मोड़ पे
इसी उम्मीद में फिरते थे बाज़ार के साथ
कितने सुहानी लगती वो तड़प भी कभी
अब वो सुकून कहाँ है इस करार के साथ
सपने पोटली में लिए फिरते हो गलियों में
और उस पे झगड़ते भी हो खरीदार के साथ
शुक्र करो उस वक्त नही थी खाप पंचायतें
आशिकों को चुन देते है अब दीवार के साथ
कहाँ ले गए ग़ज़ल को आख़िर तुम विपुल
पीछे देखो शुरू करी थी कितने प्यार के साथ........विपुल त्रिपाठी..
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