ये कौन से चाँद की चाँदनी में............आज की रात नहाई है
बता दूँ कौन है महफिल में...जिससे ये ग़ज़ल झिलमिलाई है
कि आँखें है या फूल की बगिया और सूरत पे शरम-ओ-हयाई है
और मेरा पहला शेर सुन ....बड़ी कस के वो........ कसमसाई है
ज़िदगी का मज़ा लीजिये कि यहाँ सब चार दिनों के मेले है
कल हम कहाँ और तुम कहाँ....... सबके हिस्से में तन्हाई है
वो ख्वाब में जो मिला मुझे..... तो ये सुबह क्यूँ कर हो गई
उसके नज़ारो से अब तलक.............. ये आँखें मेरी अलसाई है
आज नही करेंगे कसम से.....कि हम कोई रंज-ओ-गम की बात
जब साथ हो हसीन तो जमाने की....... सख़्तियाँ किसे याद आई है
चलिए मैंने बख्श दिया उसको.....नही लेते हम उसका नाम
हाँ...अब सुकून आया है उसे.....कि अब जा के वो............ मुस्काई है..........विपुल
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